रहबर-ए-जादा-ए-मंज़िल पे हँसी आती है लड़खड़ाते हुए इस दिल पे हँसी आती है हसरत-ए-क़ुर्बत-ए-मंज़िल पे हँसी आती है अब तो दीवानगी-ए-दिल पे हँसी आती है याद कर के तिरी सूरत तिरी बातें अक्सर यूँ तड़पता है कि इस दिल पे हँसी आती है उम्र गुम कर के फ़राहम किया सामान-ए-हयात अब मुझे ज़ीस्त के हासिल पे हँसी आती है क़ुल्ज़ुम-ए-ग़म में तो होते हैं किनारे भी भँवर जब ये सुनता हूँ तो साहिल पे हँसी आती है जगमगाता है जो सूरज की शुआ'ओं के तुफ़ैल इस भिकारी मह-ए-कामिल पे हँसी आती है 'सोज़' हर लम्हा वही मस्लहत-ए-वक़्त की बात सुन के दीवाने को आक़िल पे हँसी आती है