राह-ए-सफ़र में गर्द कभी है कभी नहीं दिल मुब्तला-ए-दर्द कभी है कभी नहीं हैराँ किए हैं ख़ल्क़ को जादू की बस्तियाँ नाम-ओ-निशान-ए-फ़र्द कभी है कभी नहीं ख़ूँ की सफ़ेदियों का नज़ारा है मुस्तक़िल ज़ोर-ए-हवा-ए-सर्द कभी है कभी नहीं ये कैसे हादसात की सूरत है शहर में चेहरों का रंग ज़र्द कभी है कभी नहीं नीलाहटों को जिस ने ग़ज़बनाक कर दिया वो संग-ए-लाजवर्द कभी है कभी नहीं 'राहत' वो अपनी तर्ज़ बदलता है बारहा लगता मुझे भी मर्द कभी है कभी नहीं