रंग कहते हैं कहानी मेरी किस की ख़ुश्बू थी जवानी मेरी कोई पाए तो मुझे क्या पाए खोए रहना है निशानी मेरी कोह से दश्त में ले आई है दुश्मन-ए-जाँ है रवानी मेरी खिल रही है पस-ए-दीवार ज़माँ ख़्वाहिश-ए-नक़्ल-ए-मकानी मेरी सर-ए-मरक़द हैं सभी साया-कुशा कोई हसरत नहीं फ़ानी मेरी तपिश-ए-रंग झुलस डालेगी क्या करे सोख़्ता-जानी मेरी नक़्श था मैं भी गली तख़्ती का उड़ गई ख़ाक-ए-मआनी मेरी क्या सुख़न-फ़हम नज़र थी जिस ने बात कोई भी न मानी मेरी नाक़िदों ने मुझे परखा 'ख़ालिद' ख़ाक सहराओं ने छानी मेरी