रंज राहत-असर न हो जाए दर्द का दिल में घर न हो जाए मुँह छुपाना पड़े न दुश्मन से ऐ शब-ए-ग़म सहर न हो जाए कुफ़्र मंज़ूर है मुझे दिल से वो मुसलमान अगर न हो जाए हाथ उलझा रहे गरेबाँ में चाक दामन उधर न हो जाए है 'ज़हीर' एक मर्द-ए-संजीदा हाँ जो आशुफ़्ता-सर न हो जाए