रोते देखा उन्हें आख़िरी में 'उम्र-भर जो रहे गुमरही में अब दवा दो के ज़हर-ए-हलाहिल हम तो ख़ुश हैं तुम्हारी ख़ुशी में ख़ूबियाँ तो बहुत सी हैं लेकिन बस मुरव्वत नहीं आदमी में ज़ेहन-ओ-दिल जिस से हो जाए रौशन ऐसा मज़मून हो शा'इरी में कुछ न कुछ तो ग़लत-फ़हमियाँ हैं फ़र्क़ क्यों आ गया दोस्ती में कोई पूछे ज़रा 'आशिक़ों से लुत्फ़ मिलता है क्या 'आशिक़ी में जुज़ मोहब्बत के 'फ़ारूक़-आदिल’ कुछ भी रक्खा नहीं ज़िंदगी में