रुका सा था कोई मंज़र मगर ठहरा नहीं था

By yasir-iqbalMarch 1, 2024
रुका सा था कोई मंज़र मगर ठहरा नहीं था
लरज़ती याद का आँसू था और बहता नहीं था
समझते थे वो कम-आमेज़ी-ए-दरवाज़ा-ए-दिल
बहुत दस्तक थी लेकिन ज़ख़्म-ए-आवाज़ा नहीं था


बसारत में किसी नादीदा वहशत की रड़क थी
भटकती आँख में किस दश्त का टुकड़ा नहीं था
सबा हमराह-ए-सत्ह-ए-आब में बहता कहाँ तक
तमन्ना घुल रही थी और बदन सच्चा नहीं था


खुला फिर रात के कोहरे पे आख़िर रात खो कर
हवा के हाथ में जो 'अक्स था उस का नहीं था
सुलगती रात की रानी लपट की आस में थी
बुझी रुत की हथेली पर दिया खिलता नहीं था


हमी बेताब थे ज़र्रे का तारा तापते थे
ख़ुदा के आइने में कौन सा सहरा नहीं था
84051 viewsghazalHindi