सब तरह के हालात को इम्कान में रक्खा हर लम्हा उसे सोच में विज्दान में रक्खा हिजरत की घड़ी हम ने तिरे ख़त के अलावा बोसीदा किताबों को भी सामान में रक्खा मुझ को मिरी क़ामत के मुताबिक़ भी जगह दी ये फूल उठा कर कभी गुल-दान में रक्खा? इक उम्र गुज़ारी नए आहंग से लेकिन अज्दाद की अक़दार को भी ध्यान में रक्खा इक रोज़ सियह रात हथेली पे सजा कर सहरा ने क़दम ख़ित्ता-ए-गुंजान में रक्खा होंटों को सदा रक्खा तबस्सुम से इबारत इक ज़हर-बुझा तीर भी मुस्कान में रक्खा