सफ़र का रुख़ बदल कर देखता हूँ

By ram-awtar-gupta-muztarNovember 13, 2020
सफ़र का रुख़ बदल कर देखता हूँ
कुछ अपनी सम्त चल कर देखता हूँ
मुक़द्दर फूल हैं या ठोकरें फिर
किसी पत्थर में ढल कर देखता हूँ


मुझे देती है क्या क्या नाम दुनिया
तिरे कूचे में चल कर देखता हूँ
तपिश बेबाकियों की कम हो शायद
लहू सूरज पे मल कर देखता हूँ


भरोसा तो नहीं वअ'दे पे तेरे
मगर फिर भी बहल कर देखता हूँ
ये वो हैं या कि मेरा वाहिमा है
उन्हें फिर आँखें मल कर देखता हूँ


83122 viewsghazalHindi