सफ़र की शाम थकन बे-पनाह थी मेरी

By abid-razaFebruary 17, 2025
सफ़र की शाम थकन बे-पनाह थी मेरी
कनार-ए-आब-ए-रवाँ ख़ेमा-गाह थी मेरी
उफ़ुक़ से रौज़न-ए-तारीक खींचता था मुझे
मैं बे-चराग़ था और शब स्याह थी मेरी


नशेब-ए-जाँ में उतरता हूँ जिस की चोटी से
उसी पहाड़ पे इक ख़ानक़ाह थी मेरी
मिरा ये ज़ो'म कि मुझ पर रवा है ख़ूँ उस का
कनीज़-ए-शोख़ मगर बे-गुनाह थी मेरी


शिकस्तगी में गिराता रहा मैं ख़िश्त-ब-ख़िश्त
मिरा बदन था कि इक सद्द-ए-राह थी मेरी
क़दीम आग से आतिश-कदा किया रौशन
हवा-ए-तुंद बड़ी ख़ैर-ख़्वाह थी मेरी


मैं एक 'उम्र उठाता रहा सुकूत का बोझ
दबी हुई मिरे अंदर कराह थी मेरी
51784 viewsghazalHindi