सफ़र में एक जग तमाम हो गया
By hasan-abidiOctober 31, 2020
सफ़र में एक जग तमाम हो गया
अब अपने घर का रास्ता भी खो गया
फिर उस के पैरहन की बू न मिल सकी
वो मेरे ख़ूँ में आस्तीं डुबो गया
वो नेश्तर जो उस के हाथ में न था
गया तो मेरी साँस में पिरो गया
अब आँसुओं की फ़स्ल काटते रहो
जुदाइयों के बीज वो तो बो गया
न जाने किस नगर आज शाम हो
सहर हुई तो जी उदास हो गया
गुज़र गई जो बे-घरों पे क्या कहें
ज़मीं को अब्र-ए-बर्शगाल धो गया
मिरी तो आँख नम न हो सकी मगर
वो मुझ पे मेरे आँसुओं से रो गया
लिखेगा कौन इस सदी की दास्ताँ
हर एक पल हज़ार साल हो गया
अब अपने घर का रास्ता भी खो गया
फिर उस के पैरहन की बू न मिल सकी
वो मेरे ख़ूँ में आस्तीं डुबो गया
वो नेश्तर जो उस के हाथ में न था
गया तो मेरी साँस में पिरो गया
अब आँसुओं की फ़स्ल काटते रहो
जुदाइयों के बीज वो तो बो गया
न जाने किस नगर आज शाम हो
सहर हुई तो जी उदास हो गया
गुज़र गई जो बे-घरों पे क्या कहें
ज़मीं को अब्र-ए-बर्शगाल धो गया
मिरी तो आँख नम न हो सकी मगर
वो मुझ पे मेरे आँसुओं से रो गया
लिखेगा कौन इस सदी की दास्ताँ
हर एक पल हज़ार साल हो गया
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