साहिल पे कोई डूब के उभरा न दुबारा

By irfan-aazmiFebruary 6, 2024
साहिल पे कोई डूब के उभरा न दुबारा
दरिया से बला-ख़ेज़ है गिर्दाब-ए-किनारा
हर शख़्स को अब चाहिए दौलत का सहारा
हम हैं कि जो करते हैं मोहब्बत पे गुज़ारा


तड़पा के तुम्हीं ने मुझे बेदार किया है
ठुकरा के तुम्हीं ने मुझे चाहत पे उभारा
मुहतात निगाहों से हर इक फूल को देखूँ
डरता हूँ कि चुभ जाए न आँखों में नज़ारा


दस्तूर-ए-ज़बाँ-बंदी का 'आलम भी 'अजब है
कहनी हो कोई बात तो करते हैं इशारा
घर कोई सलामत है न सर कोई सलामत
ऐ दोस्त यही शहर-ए-मोहब्बत है तुम्हारा


इक रोज़ तो ये तुम को बताना ही पड़ेगा
किस जुर्म की पादाश में 'इरफ़ान' को मारा
71657 viewsghazalHindi