सलोनी शाम के आँगन में जब दो वक़्त मिलते हैं

By deepak-qamarOctober 29, 2020
सलोनी शाम के आँगन में जब दो वक़्त मिलते हैं
भटकते हम से उन सायों में कुछ आधे अधूरे हैं
समुंदर है हमारे सामने मग़रूर-ओ-ख़ुद-सर सा
हमें इक पुल बना कर फ़ासले सब पार करने हैं


अंधेरों से उजालों तक उजालों से अंधेरों तक
सदा गर्दिश ही गर्दिश है कहाँ जाने वो पहुँचे हैं
ज़मीं के फूल सोने और चाँदी से नहीं खिलते
किसी मेहनत की ख़ुशबू से सभी आँचल महकते हैं


वही हैं साँप विषकन्या को डस कर पालने वाले
मिरी नगरी को रह रह कर वो अब भी ज़हर देते हैं
हर इक एहसास की पहचान ख़त्त-ओ-ख़ाल खो बैठी
वो अपने आप में डूबे हुए गुम-सुम से रहते हैं


54537 viewsghazalHindi