समेट कर तिरे जल्वों की रौशनी मैं ने दिल-ओ-निगाह की दुनिया सँवार ली मैं ने मिज़ाज-ए-हुस्न किसी तौर से बदल न सका गवारा समझा ग़म-ए-ना-गवार भी मैं ने तमाम सख़्तियाँ राह-ए-तलब की सहल हुईं तुम्हारे नाम की तस्बीह जब पढ़ी मैं ने तुम्हारा इश्क़ हुआ है कई ग़मों का सबब कि इक जहाँ की ख़रीदी है दुश्मनी मैं ने नुक़ूश-ए-पा पे जबीं ऐन बे-ख़ुदी में रही भुलाए कब भला आदाब-ए-आशिक़ी मैं ने ये कौन दे गया मुझ को सुकून-ए-क़ल्ब-ओ-नज़र ये किस का नाम लिया था अभी अभी मैं ने मिरी हयात-ए-दो-रोज़ा का क्या बुरी कि भली गुज़ारनी पड़ी 'जौहर' गुज़ार दी मैं ने