सौ जहाँ और भी हैं वुस'अत-ए-अफ़्लाक में गुम

By adnan-asarJanuary 18, 2025
सौ जहाँ और भी हैं वुस'अत-ए-अफ़्लाक में गुम
और तू रहता है हर वक़्त यहाँ ख़ाक में गुम
डूबे रहते हैं तिरी याद में हम भी ऐसे
कूज़ा-गर जैसे हमा-वक़्त रहे चाक में गुम


उठने वाला है ज़मीं से किसी महशर का ग़ुबार
होने वाले हैं सितारे ख़स-ओ-ख़ाशाक में गुम
उस को देखूँगा मियाँ जब ही थमेगा तूफ़ान
है अभी चाँद मिरे दीदा-ए-नमनाक में गुम


रक़्स करते हुए दरवेश को मा'लूम है सब
कितने अदवार हैं उड़ती हुई इस ख़ाक में गुम
मसअले ज़ीस्त को दरपेश ज़मीं पर हैं 'असर'
हम हुए जाते हैं इस हैरत-ए-अफ़्लाक में गुम


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