शाम-ए-फ़िराक़ अपनी फ़रोज़ाँ न कर सके तारीक ज़िंदगी को दरख़्शाँ न कर सके थे इस क़दर जुदाई के लम्हात सोगवार कुछ भी तलाफ़ी-ए-ग़म-ए-हिज्राँ न कर सके यूरिश ग़मों की ऐसी थी मुझ पे कि अल-अमाँ कुछ राज़दारी-ए-ग़म-ए-पिन्हाँ न कर सके थी इस क़दर नवाज़िश-ए-पैहम कि अल-हफ़ीज़ कुछ एहतिमाम-ए-वुसअत-ए-दामाँ न कर सके अपनी ही ज़िंदगी थी कुछ ऐसी ख़िज़ाँ-नसीब तुम भी हमारे दर्द का दरमाँ न कर सके