शर्मिंदा नहीं कौन तिरी इश्वा-गरी का बे-वज्ह नहीं मुँह का छुपाना है परी का जो लब को तिरे देख के बेहोश न होवे दा'वा उसी को भाता है साहब-जिगरी का तुम दिल ही में पलते रहे हो सीखा कहाँ से ऐ अश्क ये शेवा जो लिया पर्दा-दरी का जिस तरह सुने मुझ से कहे यार से जा कर ये ढब किसी को आता है पैग़ाम्बरी का पत्थर से हों दिल यक-निगह-ए-गर्म में पानी है इश्क़ से ईजाद हुनर शीशागरी का चल आइना-ख़ाने में कि है ज़ोर-ए-तमाशा जिस तर्फ़ नज़र कीजिए आलम है परी का अफ़्सोस शब-ए-हिज्र की शाम आते ही मर गए क्या क्या था भरोसा हमें आह-ए-सहरी का कर क़त्ल मुझे शौक़ से बदनामी से मत डर दस्तूर नहीं कुश्ते पे याँ नौहागरी का हैरान हूँ आई न नज़र में कमर उस की दा'वा था मुझे अपनी 'रज़ा' दीदा-वरी का