शिद्दत-ए-ग़म से जो ख़ामोश ज़बाँ होती है

By amjad-ali-ghaznawiOctober 2, 2021
शिद्दत-ए-ग़म से जो ख़ामोश ज़बाँ होती है
दिल की हर बात निगाहों से बयाँ होती है
यही शबनम जो गुल-ओ-ग़ुन्चा की जाँ होती है
बाज़ औक़ात गुलिस्ताँ पे गिराँ होती है


बस वहीं साहिल-ए-उम्मीद उभर आता है
कश्ती-ए-दिल ब-खु़शी ग़र्क़ जहाँ होती है
अहल-ए-दिल अहल-ए-यकीं अहल-ए-अमल के आगे
राह दुश्वार भी दुश्वार कहाँ होती है


कश्ती-ए-उम्र है तूफ़ान-ए-हवादिस में मगर
ग़र्क़ होती है ये ज़ालिम न रवाँ होती है
हम तो दीवाना-ए-मंज़िल हैं हमें क्या मालूम
सुब्ह होती है कहाँ शाम कहाँ होती है


कह दो गुलचीं से कि फूलों को सँभल कर तोड़े
इन्हीं फूलों में निहाँ बर्क़-ए-तपाँ होती है
21261 viewsghazalHindi