शिद्दत-ए-ग़म से जो ख़ामोश ज़बाँ होती है दिल की हर बात निगाहों से बयाँ होती है यही शबनम जो गुल-ओ-ग़ुन्चा की जाँ होती है बाज़ औक़ात गुलिस्ताँ पे गिराँ होती है बस वहीं साहिल-ए-उम्मीद उभर आता है कश्ती-ए-दिल ब-खु़शी ग़र्क़ जहाँ होती है अहल-ए-दिल अहल-ए-यकीं अहल-ए-अमल के आगे राह दुश्वार भी दुश्वार कहाँ होती है कश्ती-ए-उम्र है तूफ़ान-ए-हवादिस में मगर ग़र्क़ होती है ये ज़ालिम न रवाँ होती है हम तो दीवाना-ए-मंज़िल हैं हमें क्या मालूम सुब्ह होती है कहाँ शाम कहाँ होती है कह दो गुलचीं से कि फूलों को सँभल कर तोड़े इन्हीं फूलों में निहाँ बर्क़-ए-तपाँ होती है