सीनों में तपिश है कभी शोरिश है सरों में क्या चीज़ बसा दी गई मिट्टी के घरों में चलता हूँ सदा साथ लिए अपनी फ़सीलें पहचान सका कौन मुझे हम-सफ़रों में उड़ना है तो तहज़ीब करो सोज़-ए-दरूँ की ये वर्ना कहीं आग लगा दे न परों में ग़ैरों में हुई आम तिरी दौलत-ए-दीदार इक कोहल-ए-बसर था कि लुटा बे-बसरों में दो-गाम पे तुम ख़ुद से बिछड़ जाते हो 'ख़ुर्शीद' और लोग समझते हैं तुम्हें राहबरों में