सुब्ह के परिंदे जब चहचहाने लगते हैं मेरे दश्त के मंज़र मुस्कुराने लगते हैं जब भी अश्क आँखों में झिलमिलाने लगते हैं घर के हम चराग़ों को ख़ुद बुझाने लगते हैं ज़ुल्मतें उजालों में ग़र्क़ होने लगती हैं वो नक़ाब चेहरे से जब उठाने लगते हैं ज़ुल्म-ओ-जौर की रस्में इंतिहा को छूती है लोग जब भी बातिल को सर चढ़ाने लगते हैं एक बार जिस पर वो नज़रें डाल लेते हैं जिस्म के वही कपड़े क्यों पुराने लगते हैं जब तसल्लियाँ झूटी कोई देने लगता है हम भी पी कर अश्क-ए-ग़म मुस्कुराने लगते हैं ओढ़ कर उदासी को लौटते हैं जब जब भी आइने से हम नज़रें क्यों चुराने लगते हैं नाम पर तरक़्क़ी के शहर में हमारे अब बस्तियाँ उजड़ती हैं कार-ख़ाने लगते हैं उन की याद आते ही जाने किस लिए 'रिज़वाँ' हम उदास नग़्मों को गुनगुनाने लगते हैं