सुब्ह के उजले जज़ीरों पे भी तारी हुई शाम

By syed-masroor-jauharFebruary 7, 2022
सुब्ह के उजले जज़ीरों पे भी तारी हुई शाम
सहमे सहमे हैं मनाज़िर कि शिकारी हुई शाम
हर तरफ़ रौशनी-ओ-रंग का रक़्स-ए-पैहम
याद आती है तिरे साथ गुज़ारी हुई शाम


जम गईं गहरी उदासी की तहें पलकों पर
ओढ़ के तेरा ख़याल और भी भारी हुई शाम
खो गए जाने कहाँ सर्द हवाओं के सितार
मस्ती-ओ-कैफ़ के एहसास से आरी हुई शाम


उम्र भर धूप की पोशिश रही ख़ुद्दारी पर
हम ने पहनी न हरीफ़ों की उतारी हुई शाम
आख़िरश डूब गई अपने ही सन्नाटों में
मेरी पुर-शोर तमन्नाओं से हारी हुई शाम


दोस्तो हम को तुम्हारी सभी शर्तें मंज़ूर
तुम अगर सुब्ह के तालिब हो हमारी हुई शाम
'मीर'-ओ-'ग़ालिब' हुए 'हसरत' हुए या 'फ़ैज़'-ओ-'फ़िराक़'
सब ग़ज़ल वालों पे सौ जान से वारी हुई शाम


एक हम ही ब-सर-ओ-चश्म फ़िदा थे इस पर
'जौहर' अब जाए कहाँ हिज्र की मारी हुई शाम
37975 viewsghazalHindi