तमाम आलम से मोड़ कर मुँह मैं अपने अंदर समा गया हूँ मुझे न आवाज़ दे ज़माने मैं अपनी आवाज़ सुन रहा हूँ तज़ाद-ए-हस्ती का फ़ल्सफ़ा हूँ उरूज ओ पस्ती का आइना हूँ उठा हुआ इक ग़ुरूर-ए-सर हूँ मिटा हुआ एक नक़्श-ए-पा हूँ हो क्या तअय्युन मिरी हदों का शुमार क्या मेरी वुसअतों का हज़ारों आलम बसे हैं मुझ में मैं बेहद-ओ-बे-कराँ ख़ला हूँ अज़ाब-ए-एहसास-ओ-आगही के वो दिल-शिकन ख़्वाब-पाश लम्हे हज़ार आईने टूटते हैं मैं जब भी आईना देखता हूँ मैं ना-शुनीदा सदा-ए-सहरा बनूँगा आवाज़-ए-वक़्त 'कैफ़ी' ज़बान-ए-आलम पे आऊँगा कल मैं आज इक हर्फ़-ए-नारसा हूँ