तेरे होते हुए महफ़िल में जलाते हैं चराग़ लोग क्या सादा हैं सूरज को दिखाते हैं चराग़ अपनी महरूमी के एहसास से शर्मिंदा हैं ख़ुद नहीं रखते तो औरों के बुझाते हैं चराग़ बस्तियाँ दूर हुई जाती हैं रफ़्ता रफ़्ता दम-ब-दम आँखों से छुपते चले जाते हैं चराग़ क्या ख़बर उन को कि दामन भी भड़क उठते हैं जो ज़माने की हवाओं से बचाते हैं चराग़ गो सियह-बख़्त हैं हम लोग पे रौशन है ज़मीर ख़ुद अँधेरे में हैं दुनिया को दिखाते हैं चराग़ बस्तियाँ चाँद सितारों की बसाने वालो कुर्रा-ए-अर्ज़ पे बुझते चले जाते हैं चराग़ ऐसे बेदर्द हुए हम भी कि अब गुलशन पर बर्क़ गिरती है तो ज़िंदाँ में जलाते हैं चराग़ ऐसी तारीकियाँ आँखों में बसी हैं कि 'फ़राज़' रात तो रात है हम दिन को जलाते हैं चराग़