तेरी ख़ूँ-रेज़ सियासत का असर लगता है राह चलता हूँ तो हर गाम पे डर लगता है दश्त-दर-दश्त फिराता रहा मुझ को बरसों दिल-ए-आवारा जो बर्बाद-ए-नज़र लगता है वही सुर्ख़ी वही रंगत वही मानूस महक कफ़-ए-गुल भी तो मिरा ज़ख़्म-ए-जिगर लगता है आज भी मेरी वफ़ा-केश निगाहों में तू ज़िंदगी का कोई रंगीन सफ़र लगता है तेरी पलकों पे लरज़ता हुआ हर क़तरा-ए-अश्क मिरी पुर-शौक़ निगाहों में गुहर लगता है अब नहीं आएगा 'मुश्ताक़' वो आने वाला बुझ गए तारे चलो वक़्त-ए-सहर लगता है