तिरे फ़िराक़ में जब भी बहार गुज़री है हमें रुला के लहू बार बार गुज़री है पनाह ख़ुदा की हसीनों की बद-मिज़ाजी से मिरी दुआ भी उन्हें नागवार गुज़री है तमाम रात सितारों के साथ रोया हूँ न पूछ कैसे शब-ए-इंतिज़ार गुज़री है तिरा नसीब अगर तू ने पी नहीं ज़ाहिद बहार वर्ना बड़ी पुर-बहार गुज़री है हम अपने दर्द को रोएँ तो किस लिए आख़िर शब-ए-फ़िराक़ किसे साज़गार गुज़री है किसी की याद में हम को 'नरेश' तड़पा कर उठा के हश्र नसीम-ए-बहार गुज़री है