तिरे ख़याल को ज़ंजीर करता रहता हूँ

तिरे ख़याल को ज़ंजीर करता रहता हूँ
मैं अपने ख़्वाब की ताबीर करता रहता हूँ

तमाम रंग अधूरे लगे तिरे आगे
सो तुझ को लफ़्ज़ में तस्वीर करता रहता हूँ

जो बात दिल से ज़बाँ तक सफ़र नहीं करती
उसी को शेर में तहरीर करता रहता हूँ

दुखों को अपने छुपाता हूँ मैं दफ़ीनों सा
मगर ख़ुशी को हमा-गीर करता रहता हूँ

गुज़िश्ता रुत का अमीं हूँ नए मकान में भी
पुरानी ईंट से तामीर करता रहता हूँ

मुझे भी शौक़ है दुनिया को ज़ेर करने का
मैं अपने आप को तस्ख़ीर करता रहता हूँ

ज़मीन है कि बदलती नहीं कभी महवर
मैं कैसी कैसी तदाबीर करता रहता हूँ

जो मैं हूँ उस को छुपाता हूँ सारे 'आलम' से
जो मैं नहीं हूँ वो तशहीर करता रहता हूँ


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