टुकड़े टुकड़े जब बट जाऊँ शाम गए दिन का सारा क़र्ज़ चुकाऊँ शाम गए घर से चलते मैं ने अक्सर सोचा है शायद ही मैं लूट के आऊँ शाम गए सारा दिन इस उलझन ही में बीत गया कैसे अपना दिल बहलाऊँ शाम गए धूप के मारे लोगों को भी सहरा में मिल जाती है पेड़ की छाँव शाम गए किस काँधे पर अश्क बहाऊँ शाम गए किस को अपने ज़ख़्म दिखाऊँ शाम गए पर फैलाए मुर्ग़ा बोला मीर-'अयाज़' जागा मेरे मन का गाँव शाम गए