टुकड़े टुकड़े जब बट जाऊँ शाम गए

By ayaz-rasool-nazkiOctober 27, 2020
टुकड़े टुकड़े जब बट जाऊँ शाम गए
दिन का सारा क़र्ज़ चुकाऊँ शाम गए
घर से चलते मैं ने अक्सर सोचा है
शायद ही मैं लूट के आऊँ शाम गए


सारा दिन इस उलझन ही में बीत गया
कैसे अपना दिल बहलाऊँ शाम गए
धूप के मारे लोगों को भी सहरा में
मिल जाती है पेड़ की छाँव शाम गए


किस काँधे पर अश्क बहाऊँ शाम गए
किस को अपने ज़ख़्म दिखाऊँ शाम गए
पर फैलाए मुर्ग़ा बोला मीर-'अयाज़'
जागा मेरे मन का गाँव शाम गए


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