तुम्हारे क़द से हैं क़ाएम क़यामतें क्या क्या
By abdul-rahman-ehsan-dehlviApril 24, 2024
तुम्हारे क़द से हैं क़ाएम क़यामतें क्या क्या
उठी हैं बैठे बिठाए ये आफ़तें क्या क्या
लबों पे जान का आना ये ख़्वाब का जाना
ख़याल-ए-लब में हैं तेरी हलावतें क्या क्या
दिल अपना तुम को दिया फिर रखे वफ़ा की उमीद
बयाँ अपनी करूँ मैं हिमाक़तें क्या क्या
ज़मीं में शर्म से उस क़द की गड़ गया है सर्व
हुई हैं उस को न हासिल नदामतें क्या क्या
फिरा 'अदम से कोई अब तलक न उक्ता कर
ख़ुदा ही जाने वहाँ हैं फ़राग़तें क्या क्या
तू बे-नसीब है नासेह तुझे कहूँ क्या मैं
कि रंज-ए-इश्क़ में होती हैं राहतें क्या क्या
गले से लगते ही जितने गिले थे भूल गए
वगर्ना याद थीं मुझ को शिकायतें क्या क्या
मुझे है गिर्या मैं मचलाए पर हँसी आती
कहे है सुन के तू जब मेरी हालतें क्या क्या
कहे है मुझ को मिरा शो'ला-रू ब-सद तशनीअ'
बयान तेरी करूँ मैं शरारतें क्या क्या
कहूँ जो आ तो फिरे मेरे गिर्द पहरों तलक
जो बोलूँ जा तो जताए नक़ाहतें क्या क्या
डराए आह से गर आह सुन के मैं न डरूँ
दिखाए अश्क की अपनी सरायतें क्या क्या
जो ज़ुल्फ़ देखी तो चिमटी मुझे बला की तरह
नसीब अपने की बतलाएँ शामतें क्या क्या
जो खोलूँ बंद-ए-क़बा फिर खुले है तेरी ज़बाँ
निकालता है तू इस में क़बाहतें क्या क्या
जो सुर्मा दूँ हूँ तो इक तूतिया सा बाँधे है
कहूँ जो बात बनाए हिकायतें क्या क्या
मरीज़-ए-'इश्क़ तू हो और मुझ को रोग लगे
रहें हैं अब की ज़माने में चाहतें क्या क्या
जो ज़िक्र कल का किया मैं ने मुँह छुपा के कहा
तुझे भी याद हैं 'एहसाँ' किनायतें क्या क्या
उठी हैं बैठे बिठाए ये आफ़तें क्या क्या
लबों पे जान का आना ये ख़्वाब का जाना
ख़याल-ए-लब में हैं तेरी हलावतें क्या क्या
दिल अपना तुम को दिया फिर रखे वफ़ा की उमीद
बयाँ अपनी करूँ मैं हिमाक़तें क्या क्या
ज़मीं में शर्म से उस क़द की गड़ गया है सर्व
हुई हैं उस को न हासिल नदामतें क्या क्या
फिरा 'अदम से कोई अब तलक न उक्ता कर
ख़ुदा ही जाने वहाँ हैं फ़राग़तें क्या क्या
तू बे-नसीब है नासेह तुझे कहूँ क्या मैं
कि रंज-ए-इश्क़ में होती हैं राहतें क्या क्या
गले से लगते ही जितने गिले थे भूल गए
वगर्ना याद थीं मुझ को शिकायतें क्या क्या
मुझे है गिर्या मैं मचलाए पर हँसी आती
कहे है सुन के तू जब मेरी हालतें क्या क्या
कहे है मुझ को मिरा शो'ला-रू ब-सद तशनीअ'
बयान तेरी करूँ मैं शरारतें क्या क्या
कहूँ जो आ तो फिरे मेरे गिर्द पहरों तलक
जो बोलूँ जा तो जताए नक़ाहतें क्या क्या
डराए आह से गर आह सुन के मैं न डरूँ
दिखाए अश्क की अपनी सरायतें क्या क्या
जो ज़ुल्फ़ देखी तो चिमटी मुझे बला की तरह
नसीब अपने की बतलाएँ शामतें क्या क्या
जो खोलूँ बंद-ए-क़बा फिर खुले है तेरी ज़बाँ
निकालता है तू इस में क़बाहतें क्या क्या
जो सुर्मा दूँ हूँ तो इक तूतिया सा बाँधे है
कहूँ जो बात बनाए हिकायतें क्या क्या
मरीज़-ए-'इश्क़ तू हो और मुझ को रोग लगे
रहें हैं अब की ज़माने में चाहतें क्या क्या
जो ज़िक्र कल का किया मैं ने मुँह छुपा के कहा
तुझे भी याद हैं 'एहसाँ' किनायतें क्या क्या
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