उसी क़ातिल का सीने में तेरे ख़ंजर रहा होगा कि जो छुप कर बहुत एहसास के अंदर रहा होगा न जाने किस तरह ख़ामोश दरिया में मची हलचल निगाहों में तिरी शायद कोई कंकर रहा होगा दर-ओ-दीवार से आँसू टपकते हैं लहू बन कर इसी कमरे में अरमानों का इक बिस्तर रहा होगा कहीं सिमटा है सन्नाटे की चादर ओढ़ कर देखो कभी बस्ती में वो भी खिलखिलाता घर रहा होगा तुम्हें भी हो गया धोका ज़मीं की इन दरारों से समझ बैठे हमेशा ही ये दिल बंजर रहा होगा रहूँ ख़ामोश मैं फिर भी फ़साना बन ही जाता है तिरे दिल में किसी अख़बार का दफ़्तर रहा होगा मुझे शोहरत अता की ज़हर-ए-रुस्वाई का पैकर भी मिरे वालिद के भीतर भी कोई शंकर रहा होगा तिरी बुनियाद में शामिल कई मासूम चीख़ें हैं इमारत बन रही होगी तो क्या मंज़र रहा होगा सुना है आप के दिल में रवाँ होने लगी नफ़रत यक़ीनन बद-गुमाँ 'परिमल' कोई शाइ'र रहा होगा