उतरा जो इल्तिफ़ात का दरिया न था कभी
By anjum-usmanOctober 25, 2020
उतरा जो इल्तिफ़ात का दरिया न था कभी
दिल इस क़दर भी हिज्र का मारा न था कभी
सरमाया-ए-हयात थे फ़र्दा के ख़्वाब सो
लिखा बिसात-ए-जाँ पे ख़सारा न था कभी
बिखरा वो ख़ाक हो के मिरी रहगुज़ार में
जो शख़्स आ के ख़्वाब में मिलता न था कभी
तन्हाई ख़ौफ़ ये शब-ए-दीजूर ये घुटन
गुज़रेगी ऐसे क़ब्र में सोचा न था कभी
इक आन में ये पैकर-ए-ख़ाकी बिखर गया
ये सानेहा तो रूह पे गुज़रा न था कभी
मस्तूर था हिजाब-ए-तक़द्दुस में सोज़-ए-इश्क़
आवाज़ा-ए-ख़िराम-ए-तमन्ना न था कभी
नासूर बन के रूह को घायल किए गया
जो अश्क चश्म-ए-नम ने गिराया न था कभी
तो ये न जुस्तुजू है न ज़ौक़-ए-जुनून-ए-इश्क़
वीरान ऐसा शहर-ए-तमन्ना न था कभी
'अंजुम' ये शब-गज़ीदा सहर क्यूँ नसीब में
मैं ने चराग़-ए-शौक़ बुझाया न था कभी
दिल इस क़दर भी हिज्र का मारा न था कभी
सरमाया-ए-हयात थे फ़र्दा के ख़्वाब सो
लिखा बिसात-ए-जाँ पे ख़सारा न था कभी
बिखरा वो ख़ाक हो के मिरी रहगुज़ार में
जो शख़्स आ के ख़्वाब में मिलता न था कभी
तन्हाई ख़ौफ़ ये शब-ए-दीजूर ये घुटन
गुज़रेगी ऐसे क़ब्र में सोचा न था कभी
इक आन में ये पैकर-ए-ख़ाकी बिखर गया
ये सानेहा तो रूह पे गुज़रा न था कभी
मस्तूर था हिजाब-ए-तक़द्दुस में सोज़-ए-इश्क़
आवाज़ा-ए-ख़िराम-ए-तमन्ना न था कभी
नासूर बन के रूह को घायल किए गया
जो अश्क चश्म-ए-नम ने गिराया न था कभी
तो ये न जुस्तुजू है न ज़ौक़-ए-जुनून-ए-इश्क़
वीरान ऐसा शहर-ए-तमन्ना न था कभी
'अंजुम' ये शब-गज़ीदा सहर क्यूँ नसीब में
मैं ने चराग़-ए-शौक़ बुझाया न था कभी
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