उतरा जो इल्तिफ़ात का दरिया न था कभी दिल इस क़दर भी हिज्र का मारा न था कभी सरमाया-ए-हयात थे फ़र्दा के ख़्वाब सो लिखा बिसात-ए-जाँ पे ख़सारा न था कभी बिखरा वो ख़ाक हो के मिरी रहगुज़ार में जो शख़्स आ के ख़्वाब में मिलता न था कभी तन्हाई ख़ौफ़ ये शब-ए-दीजूर ये घुटन गुज़रेगी ऐसे क़ब्र में सोचा न था कभी इक आन में ये पैकर-ए-ख़ाकी बिखर गया ये सानेहा तो रूह पे गुज़रा न था कभी मस्तूर था हिजाब-ए-तक़द्दुस में सोज़-ए-इश्क़ आवाज़ा-ए-ख़िराम-ए-तमन्ना न था कभी नासूर बन के रूह को घायल किए गया जो अश्क चश्म-ए-नम ने गिराया न था कभी तो ये न जुस्तुजू है न ज़ौक़-ए-जुनून-ए-इश्क़ वीरान ऐसा शहर-ए-तमन्ना न था कभी 'अंजुम' ये शब-गज़ीदा सहर क्यूँ नसीब में मैं ने चराग़-ए-शौक़ बुझाया न था कभी