वज्ह-ए-रुस्वाई है अब लाएक़-ए-महफ़िल होना उन की फ़हरिस्त-ए-तबर्रा में न शामिल होना फ़न का दावा है तो कुछ जुरअत-ए-इज़हार भी हो ज़ेब देता नहीं फ़नकार को बुज़दिल होना मदह-ए-गुल-चीं हो जहाँ मस्लक-ए-मुर्ग़ान-ए-चमन हम को मंज़ूर नहीं फ़ख़्र-ए-अनादिल होना अपनी पहचान है वो क़र्या-ए-तारीक जहाँ मुंसिफ़ों को भी मयस्सर नहीं आदिल होना मेरे शेरों ने उसे सोच में डाला तो सही नेक है दिल में भी रज़्म-ए-हक़-ओ-बातिल होना चाँद निकले तो सही बाम पे कुछ शोर तो हो कुछ ज़रूरी तो नहीं है मह-ए-कामिल होना न सियासत न मईशत न ब-नाम-ए-मज़हब अब गवारा नहीं पाबंद-ए-सलासिल होना सानेहा इस से बड़ा और भला क्या होगा 'ख़ालिद' उस शोख़ के क़ब्ज़े में मिरा दिल होना