वक़्त आया है ग़ज़ब तुंदी-ए-रफ़्तार के साथ कि सँभल पाई न पोशाक भी दस्तार के साथ आने देते नहीं रंजिश में भी दीवारों को देख हम नफ़रतें भी करते हैं कुछ प्यार के साथ इक तबस्सुम से चमन खिलता गया फूल समेत फूल क्या ग़ुंचे चटख़्ते गए गुलज़ार के साथ हाथ जिस पर वो रखेगा वही यूसुफ़ उस का जिंस-ए-वाफ़र है बहुत गर्मी-ए-बाज़ार के साथ 'सोज़' मौक़ूफ़ नहीं शाइ'री तक नाम मिरा मैं सरापा ही ग़ज़ब-सोज़ हूँ किरदार के साथ