वक़्त की ताक़ पे दोनों की सजाई हुई रात किस पे ख़र्ची है बता मेरी कमाई हुई रात और फिर यूँ हुआ आँखों ने लहु बरसाया याद आई कोई बारिश में बिताई हुई रात हिज्र के बन में हिरन अपना भी मेरा ही गया उसरत-ए-रम से बहर-हाल रिहाई हुई रात तू तो इक लफ़्ज़-ए-मोहब्बत को लिए बैठा है तो कहाँ जाती मिरे जिस्म पे आई हुई रात दिल को चैन आया तो उठने लगा तारों का ग़ुबार सुब्ह ले निकली मिरे हाथ में आई हुई रात और फिर नींद ही आई न कोई ख़्वाब आया मैं ने चाही थी मिरे ख़्वाब में आई हुई रात