वफ़ा के नाम पे रक्खी हैं तोहमतें क्या क्या बिगाड़ दी हैं ज़माने ने सूरतें क्या क्या हमीं पे दोष है उन की क़ज़ा नमाज़ों का जनाब-ए-शैख़ ने ढूँडीं वज़ाहतें क्या क्या बड़े ख़ुलूस से इक शहर-ए-गुल उजाड़ लिया हुई हैं अहल-ए-नज़र से हिमाक़तें क्या क्या फ़रेब-ए-सीम-ओ-जवाहर हुए हैं नाम-ओ-नुमूद ख़याल-ए-यार से उलझी हैं ज़ुल्मतें क्या क्या वो मेहरबाँ तो न था पर ख़ुलूस भी न रहा पड़ी हैं ग़ैर की सोहबत में आदतें क्या क्या ज़बान-ए-क़ातिल-ओ-मक़्तूल पर है एक ही नाम ख़ुदा के नाम पे गुज़रीं क़यामतें क्या क्या बढ़ा के हल्क़ा-ए-रिंदाँ की रंजिशें 'ख़ालिद' सितमगरों ने निकाली हैं हसरतें क्या क्या