जी चाहे का'बे जाओ जी चाहे बुत को पूजो ये सुन रखो 'मुहिब' तुम आशिक़ कभू न हूजो ख़ूँ सौ दिलों का होगा मश्शाता तेरी गर्दन ज़ुल्फ़ों का उस की टूटा शाने से एक मू जो जिस जा फ़रिश्ते के पर जलते हों पाँव धरते दिल उस गली में सर से शायाँ है जाए तू जो इक-दम में देख लीजो फिर जेब पारा-पारा बे-फ़ाएदा है नासेह करता है तू रफ़ू जो किस रश्क-ए-मेहर-ओ-मह के शाएक़ हैं देखने के हैं मेहर-ओ-माह फिरते दिन-रात कू-ब-कू जो पा कर तुझे हलावत क्या क्या उठाते हैं वो कुछ दिल ही दिल में तेरी करते हैं जुस्तुजू जो क्या क्या न दाग़-ए-हसरत सब दिल ही दिल में खावें मज्लिस में गुल-रुख़ों की आवे वो शम्अ'-रू जो तकता मुक़ाबिल उस के किस रू से माह होवे गर्म-ए-सुख़न हो ज़र्रा वो मेहर-ए-शो'ला-ख़ू जो थी मौज आहू-ए-चीं और सब हबाब नाफ़े दरिया पर उस ने खोले गेसू-ए-मुश्कबू जो सैल-ए-सरिश्क मेरे पहुँचे है ग़म में तेरे गुलज़ार में रवाँ है ऐ गुल ये आब-जू जो गुलशन में गर वो मय-कश आवे शराब पीने गुल का भरे पियाला ग़ुंचे की है सुबू जो काले के काटने की चढ़ती है लहर दिल पर ज़ुल्फ़-ए-सियाह उस की याद आए है कभू जो मा'नी-शनास ही कुछ रुत्बे को उस के समझे इक तर्ज़ का है अपना अंदाज़-ए-गुफ़्तुगू जो आशिक़ न हम तो होते पर ऐ 'मुहिब' बग़ल में दिल है वो दुश्मन-ए-जाँ पीता रहे लहू जो