वो हमारी सम्त अपना रुख़ बदलता क्यूँ नहीं

By afsar-mahpuriMay 22, 2024
वो हमारी सम्त अपना रुख़ बदलता क्यूँ नहीं
रात तो गुज़री मगर सूरज निकलता क्यूँ नहीं
ठीक उठते हैं क़दम भी राह भी हमवार है
बोझ अपनी ज़िंदगी का फिर सँभलता क्यूँ नहीं


जिस तरह वो चाहता है ढाल लेता है हमें
वो हमारे दिल के पैमाने में ढलता क्यूँ नहीं
क्या मोहब्बत में कभी होती है ऐसी कैफ़ियत
वो क़रीब-ए-जाँ है लेकिन दिल बहलता क्यूँ नहीं


आदमी के दिल का जौहर यूँ तो ईमाँ है मगर
आज-कल बाज़ार में सिक्का ये चलता क्यूँ नहीं
जाने कैसी हैं ये ज़ंजीरें हमारे पाँव में
गर्मी-ए-रफ़्तार से लोहा पिघलता क्यूँ नहीं


इस मआल-ए-शौक़ पर सब हाथ मलते हैं मगर
तू कभी 'अफ़सर' कफ़-ए-अफ़्सोस मलता क्यूँ नहीं
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