वो कि ज़र्रों की तरह मुझ में सिमट कर फैला
By salim-saleemFebruary 28, 2024
वो कि ज़र्रों की तरह मुझ में सिमट कर फैला
जिस को बाँधे हुए रख्खा वही अक्सर फैला
इक उमडता हुआ दरिया मिरे आगे पीछे
इक सुलगता हुआ सहरा मिरे अंदर फैला
एक नुक़्ते पे सिमटती रही दुनिया मेरी
एक नुक़्ता मिरी दुनिया से जो बाहर फैला
पर्दा-ए-रूह से बाहर भी किसी दिन आऊँ
आ कभी अपना बदन मेरे बदन पर फैला
ये ज़मीं बस मिरे क़दमों से लगी रहती है
आसमाँ मेरी निगाहों के बराबर फैला
जिस को बाँधे हुए रख्खा वही अक्सर फैला
इक उमडता हुआ दरिया मिरे आगे पीछे
इक सुलगता हुआ सहरा मिरे अंदर फैला
एक नुक़्ते पे सिमटती रही दुनिया मेरी
एक नुक़्ता मिरी दुनिया से जो बाहर फैला
पर्दा-ए-रूह से बाहर भी किसी दिन आऊँ
आ कभी अपना बदन मेरे बदन पर फैला
ये ज़मीं बस मिरे क़दमों से लगी रहती है
आसमाँ मेरी निगाहों के बराबर फैला
67385 viewsghazal • Hindi