यादों का इक दीपक दिल में बैठ के रोज़ जलाता हूँ

By ahmad-muneebDecember 29, 2020
यादों का इक दीपक दिल में बैठ के रोज़ जलाता हूँ
देख के तेरी तस्वीरों को रोता हँसता गाता हूँ
मोमिन ऐसा हूँ कि पहले जाम पे जाम लगाता हूँ
जा के फिर सज्दे में रब को अपना हाल सुनाता हूँ


हिज्र ने तेरे हालत मेरी ऐसी कर दी है के अब
दो दिन सोया रहता हूँ और दो दिन काम पे जाता हूँ
दरिया सूरज चाँद सितारे क़ौस-ओ-क़ुज़ह सब अपनी जगह
लेकिन वो इक लम्हा जब मैं तुझ से हाथ मिलाता हूँ


आधी शब का सन्नाटा है उस में जुगनू और इक झील
ऐसे मंज़र देख के अक्सर ख़ुद में गुम हो जाता हूँ
इश्क़ वही सच्चा है जिस में मंज़िल की तमसील न हो
ऐसे वैसे जुमले कह कर ख़ुद को मैं बहलाता हूँ


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