ये बात अब के उसे बताना नहीं पड़ेगी ग़ज़ल को हरगिज़ ग़ज़ल सुनाना नहीं पड़ेगी जो वो मिला तो मैं ख़र्च कर दूँगा एक पल में बदन की ख़ुश्बू मुझे बचाना नहीं पड़ेगी तुझे ब्याहूँ तो दो क़बीले क़रीब होंगे किसी को बंदूक़ भी उठाना नहीं पड़ेगी मैं अपने लहजे का हाथ थामे निकल पड़ा हूँ किसी को आवाज़ भी लगाना नहीं पड़ेगी मैं अपनी हर इक सियाह-बख़्ती को जानता हूँ 'ज़ईम' तोते को फ़ाल उठाना नहीं पड़ेगी