ये लौ कैसी है जो इक साँस भी मद्धम नहीं होती भुलाने पर भी ज़ालिम याद उस की कम नहीं होती ये मतलब-आश्ना दुनिया ये ज़ालिम बेवफ़ा दुनिया शरीक-ए-ऐश कर लीजे शरीक-ए-ग़म नहीं होती अदम के जाने वाले क़ाफ़िले दिन-रात चलते हैं मगर इस अंजुमन की दिलकशी कुछ कम नहीं होती न पूछ ऐ हम-नशीं रूदाद-हा-ए-शाम-ए-ग़म हम से क़यामत की सहर होती है शाम-ए-ग़म नहीं होती भुलाया है मुझे तू ने तिरी बरहम-मिज़ाजी ने मगर बेदर्द तेरी याद फिर भी कम नहीं होती नहीं वाक़िफ़ तू ऐ दिल आतिश-ए-सोज़-ए-मोहब्बत से ये दौलत जिस क़दर आती है घर में कम नहीं होती 'सफ़ीर' अब तक तो रूदाद-ए-मोहब्बत ख़ाम है तेरी अभी तो आँख भी फ़र्त-ए-अलम से नम नहीं होती