हूरों का नुज़ूल

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अकबर इलाहाबादी एक बार ख़्वाजा हसन निज़ामी के हाँ मेहमान थे। दो तवाइफ़ें हज़रत ‎निज़ामी से ता’वीज़ लेने आईं। ख़्वाजा साहब गाव तकिया से लगे बैठे थे। अचानक उनके ‎दोनों हाथ ऊपर को उठे और इस तरह फैल गए जैसे बच्चे को गोद में लेने के लिए फैलते हैं ‎और बेसाख़्ता ज़बान से निकला, “आइये आइये।”
तवाइफ़ों के चले जाने के बाद अकबर इलाहाबादी यूं गोया हुए, “मैं तो ख़्याल करता था यहाँ ‎सिर्फ़ फ़रिश्ते नाज़िल होते हैं, लेकिन आज तो हूरें भी उतर आईं।” और ये शे’र पढ़ा,

फ़क़ीरों के घरों में लुत्फ़ की रातें भी आती हैं ‎
ज़ियारत के लिए अक्सर मुसम्मातें भी आती हैं।


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