किस शेर की आमद है कि रन काँप रहा है रुस्तम का जिगर ज़ेर-ए-कफ़न काँप रहा है हर क़स्र-ए-सलातीन-ए-ज़मन काँप रहा है सब एक तरफ़ चर्ख़-ए-कुहन काँप रहा है शमशीर-बकफ़ देख के हैदर के पिसर को जिब्रील लरज़ते हैं समेटे हुए पर को हैबत से हैं न क़िला-ए-अफ़लाक के दरबंद जल्लाद-ए-फ़लक भी नज़र आता है नज़र-बंद वा है कमर-ए-चर्ख़ से जौज़ा का कमर-बंद सय्यारे हैं ग़लताँ सिफ़त-ए-ताइर-ए-पुर-बंद अंगुश्त-ए-अतारिद से क़लम छूट पड़ा है ख़ुरशीद के पंजे से इल्म छूट पड़ा है ख़ुद फ़ितना ओ शर पढ़ रहे हैं फ़ातिहा-ए-ख़ैर कहते हैं अनल-अब्द लरज़ कर सनम-ए-दैर जाँ ग़ैर है तन ग़ैर मकीँ ग़ैर मकाँ ग़ैर ने चर्ख़ का है दूर न सय्यारों की है सैर सकते में फ़लक ख़ौफ़ से मानिंद-ए-ज़ीं है जुज़ बख़्त-ए-यज़ीद अब कोई गर्दिश में नहीं है बे-होश है बिजली पे समंद इन का है होशियार ख़्वाबीदा हैं सब ताला-ए-अब्बास है बे-दार पोशीदा है ख़ुरशीद इल्म उन का नुमूदार बे-नूर है मुँह चाँद का रुख़ उन का ज़िया-बार सब जुज़ु हैं कल रुतबे में कहलाते हैं अब्बास कौनैन पियादा हैं सवार आते हैं अब्बास चमका के मह-ओ-ख़ौर ज़र ओ नुक़रा के असा को सरकाते हैं पीरे फ़लक-ए-पुश्त-दोता को अदल आगे बढ़ा हुक्म ये देता है क़ज़ा को हाँ बांध ले ज़ुल्म-ओ-सितम-ओ-जोर-ओ-जफ़ा को घर लूट ले बुग़्ज़-ओ-हसद-ओ-किज़्ब-ओ-रिया का सर काट ले हिर्स-ओ-तमा-ओ-मकर-ओ-दग़ा का राहत के महलों को बला पूछ रही है हस्ती के मकानों को फ़ना पूछ रही है तक़दीर से उम्र अपनी क़ज़ा पूछ रही है दोनों का पता फ़ौज-ए-जफ़ा पूछ रही है ग़फ़लत का तो दिल चौंक पड़ा ख़ौफ़ से हिल कर फ़ितने ने किया ख़ूब गले कुफ्र से मिल कर अल-नशर का हंगामा है इस वक़्त हश्र में अल-सूर का आवाज़ा है अब जिन ओ बशर में अल-जुज़ का है तज़किरा बाहम तन-ओ-सर में अल-वस्ल का ग़ुल है सक़र ओ अहल-ए-सक़र में अल-हश्र जो मुर्दे न पुकारें तो ग़ज़ब है अल-मौत ज़बान-ए-मलक-उल-मौत पे अब है रूकश है उस इक तन का न बहमन न तमहतीं सुहराब ओ नरीमान ओ पशुन बे-सर ओ बे-तन क़ारों की तरह तहत-ए-ज़मीं ग़र्क़ है क़ारन हर आशिक़-ए-दुनिया को है दुनिया चह-ए-बे-ज़न सब भूल गए अपना हस्ब और नस्ब आज आता है जिगर-गोशा-ए-क़िताल-ए-अरब आज हर ख़ुद निहाँ होता है ख़ुद कासा-ए-सर में मानिंद-ए-रग-ओ-रेशा ज़र्रा छुपती है बर में बे-रंग है रंग असलहे का फ़ौज-ए-उम्र में जौहर है न तैग़ों में न रौगन है सिपर में रंग उड़ के भरा है जो रुख़-ए-फ़ौज-ए-लईं का चेहरा नज़र आता है फ़लक का न ज़मीं का है शोर फ़लक का कि ये ख़ुरशीद-ए-अरब है इंसाफ़ ये कहता है कि चुप तर्क-ए-अदब है ख़ुरशीद-ए-फ़लक पर तव-ए-आरिज़ का लक़ब है ये क़ुदरत-ए-रब क़ुदरत-ए-रब क़ुदरत-ए-रब है हर एक कब इस के शरफ़-ओ-जाह को समझे इस बंदे को वो समझे जो अल्लाह को समझे यूसुफ़ है ये कुनआँ में सुलेमान है सबा में ईसा है मसीहाई में मूसा है दुआ में अय्यूब है ये सब्र में यहया है बका में शपीर है मज़लूमी में हैदर है वग़ा में क्या ग़म जो न मादर न पिदर रखते हैं आदम अब्बास सा दुनिया में पिसर रखते हैं आदम पंजे में यदुल्लाह है बाज़ू में है जाफ़र ताअत में मुलक ख़ू में हसन ज़ोर में हैदर इक़बाल में हाशिम तो तवाज़ो में पयंबर और तंतना-ओ-दबदबा में हमज़ा-ए-सफ़दर जौहर के दिखाने में ये शमशीर-ए-ख़ुदा है और सर के कटाने में ये शाह-ए-शोहदा है बे उन के शर्फ़ कुछ भी ज़माना नहीं रखता ईमान सिवा उन के ख़ज़ाना नहीं रखता क़ुरआँ भी कोई और फ़साना नहीं रखता शपीर बगै़र उन के यगाना नहीं रखता ये रूह-ए-मुक़द्दस है फ़क़त जलव-गिरी में ये अक़ल-ए-मुजर्रिद है जमाल-ए-बशरी में सहरा में गिरा परतव-ए-आरिज़ जो क़ज़ारा सूरज की किरन ने किया शर्मा के किनारा यूँ धूप एड़ी आग पे जिस तरह से पारा मूसा की तरह ग़श हुए सब कैसा नज़ारा जुज़ मदह न दम रोशनई-ए-तूर ने मारा शब-ए-ख़ून अजब धूप पे उस नूर ने मारा क़ुर्बान हवा-ए-इल्म-ए-शाह-ए-अमम के सब ख़ार हरे हो के बने सर्व-ए-इरम के हैं राज़ अयाँ ख़ालिक़-ए-ज़ुलफ़ज़्ल-ओ-करम के जिब्रील ने पर खोले हैं दामन में इल्म के पर्चम का जहाँ अक्स गिरा साइक़ा चमका पर्चम कहीं देखा न सुना इस चम-ओ-ख़म का क़र्ना में न दम है न जलाजुल में सदा में है बूक़ ओ दहल ओ कोस की भी साँस हुआ है हर दिल के धड़कने का मगर शोर बपा है बाजा जो सलामी का उसे कहिए बजा है सकते में जो आवाज़ है नक़्कारा-ए-वदफ़ की नौबत है वरूद-ए-ख़ल्फ़-ए-शाह-ए-नजफ़ की आमद को तो देखा रुख़-ए-पुर-नूर को देखो वालशमश पढ़ो रौशनी-ए-तूर को देखो लिए रौशनी-ए-माह को ने हूर को देखो इस शम्मा-ए-मुराद-ए-मुलक-ओ-हूर को देखो है कौन तजल्ली रुख़-ए-पुर-नूर की मानिंद याँ रौशनी-ए-तूर जली तूर के मानिंद मद्दाह को अब ताज़गी-ए-नज़्म में कद है या हज़रत-ए-अब्बास-ए-अली वक़्त-ए-मदद है मौला की मदद से जो सुख़न हो वो सनद है इस नज़्म का जो हो ना मक़र उस को हसद है हासिद से सुलह भी नहीं दरकार है मुझ को सरकार-ए-हुसैनी से सरोकार है मुझ को गुलज़ार है ये नज़्म ओ बयाँ बेशा नहीं है बाग़ी को भी गुलगश्त में अंदेशा नहीं है हर मिस्र-ए-पर-जस्ता है फल तेशा नहीं है याँ मग़्ज़ सुख़न का है रग-ओ-रेशा नहीं है सेहत मिरी तशख़ीस से है नज़्म के फ़न की मानिंद-ए-क़लम हाथ में है नब्ज़ सुख़न की गर काह मिले फ़ाएदा क्या कोहकनी से मैं काह को गुल करता हूँ रंगीं-ए-सुख़नी से ख़ुश-रंग है अलफ़ाज़ अक़ीक़-ए-यमनी से ये साज़ है सोज़-ए-ग़म-ए-शाह-ए-मदनी से आहन को करूँ नर्म तो आइना बना लूँ पत्थर को करूँ गर्म तो मैं इत्र बना लूँ गो ख़िलअत तहसीं मुझे हासिल है सरापा पर वस्फ़ सरापा का तो मुश्किल है सरापा हर अज़्व-ए-तन इक क़ुदरत-ए-कामिल है सरापा ये रूह है सर-ता-बक़दम दिल है सरापा क्या मिलता है गर कोई झगड़ता है किसी से मज़मून भी अपना नहीं लड़ता है किसी से सूरज को छुपाता है गहन आइना को ज़ंग दाग़ी है क़मर-ए-सोख़्ता ओ लाला-ए-ख़ुश-रंग क्या अस्ल दर- ओ लअल की वो पानी है ये संग देखो गुल ओ ग़ुन्चा वो परेशाँ है ये दिल-ए-तंग इस चेहरे को दावर ही ने लारेब बनाया बे-ऐब था ख़ुद नक़्श भी बे-ऐब बनाया इंसाँ कहे उस चेहरे को कब चश्मा-ए-हैवाँ ये नूर वो ज़ुल्मत ये नुमूदार वो पिनहाँ बरसों से है आज़ार-ए-बर्स में मह-ए-ताबाँ कब से यरक़ाँ महर को है और नहीं दरमाँ आइना है घर ज़ंग काया रंग नहीं है इस आइना में रंग है और ज़ंग नहीं है आइना कहा रुख़ को तो कुछ भी न सुना की सनअत वो सिकन्दर की ये सनअत है ख़ुदा की वाँ ख़ाक ने सैक़ल यहाँ क़ुदरत ने जिला की ताला ने किस आइना को ख़ूबी ये अता की हर आइने में चहरा-ए-इंसाँ नज़र आया इस रुख़ में जमाल-ए-शहि-ए-मरदाँ नज़र आया बे-मिस्ल-ए-हसीं है निगह-ए-अहल-ए-यकीं में बस एक ये ख़ुर्शीद है अफ़्लाक ओ ज़मीं में जलवा है अजब अब्रुओं का क़ुरब-ए-जबीं में दो मछलियाँ हैं चश्मा-ए-ख़ुर्शीद-ए-मुबीं में मर्दुम को इशारा है ये अबरुओं का जबीं पर हैं दो मह-ए-नौ जलवा-नुमा चर्ख़-ए-बरीं पर बीनी के तो मज़मूँ पे ये दावा है यक़ीनी इस नज़्म के चेहरे की वो हो जाएगा बीनी मंज़ूर निगह को जो हुई अर्श-ए-नशीनी की साया-ए-बीनी ने फ़क़त जलवा-ए-गज़ीनी दरकार इसी बीनी की मोहब्बत का असा है ये राह तो ईमाँ से भी बारीक सिवा है बीनी को कहूँ शम्मा तो लौ उस की कहाँ है पर-नूर भंवोँ पर मुझे शोला का गुमाँ है दो शोले और इक शम्मा ये हैरत का मकाँ है हाँ ज़ुल्फ़ों के कूचों से हवा तुंद रवां है समझो न भवें बस क़ि हवा का जो गुज़र है ये शम्मा की लौ गाह इधर गाह इधर है इस दर्जा पसंद इस रुख़-ए-रौशन की चमक है ख़ुर्शीद से बर्गश्ता हर इक माह-ए-फ़लक है अबरो का ये ग़ुल काबा-ए-अफ़्लाक तिलक है महराब दुआ-ए-बशर-ओ-जिन-ओ-मलक है देखा जो मह-ए-नौ ने इस अबरो के शर्फ़ को कअबा की तरफ़ पुश्त की रुख़ उस की तरफ़ को जो मानी-ए-तहक़ीक़ से तावील का है फ़र्क़ पतली से वही कअबा की तमसील का है फ़र्क़ सुरमा से और इस आँख से इक मील का है फ़र्क़ मील एक तरफ़ नूर की तकमील का है फ़र्क़ इस आँख पे उम्मत के ज़रा ख़िशम को देखो नाविक की सिलाई को और उस चश्म को देखो गर आँख को नर्गिस कहूँ है ऐन-ए-हिक़ारत नर्गिस में न पलकें हैं न पुतली न बसारत चेहरे पे मह-ए-ईद की बेजा है इशारत वो ईद का मुज़्दा है ये हैदर की बशारत अबरो की मह-ए-नौ में न जुंबिश है न ज़ौ है इक शब वो मह-ए-नौ है ये हर शब मह-ए-नौ है मुँह ग़र्क़-ए-अर्क़ देख के ख़ुरशीद हुआ तर अबरो से टपकता है निरा तैग़ का जौहर आँखों का अर्क़ रौगन-ए-बादाम से बेहतर आरिज़ का पसीना है गुलाब-ए-गुल-ए-अहमर क़तरा रुख़-ए-पुर-नूर पे ढलते हुए देखो इत्र-ए-गुल-ए-ख़ुर्शीद निकलते हुए देखो तस्बीह-ए-कुनाँ मुँह में ज़बान आठ पहर है गोया दहन-ए-ग़ुन्चा में बरग-ए-गुल-ए-तर है कब ग़ुन्चा ओ गुलबर्ग में ये नूर मगर है इस बुर्ज में ख़ुर्शीद के माही का गुज़र है तारीफ़ में होंटों की जो लब तर हुआ मेरा दुनिया ही में क़ाबू लब-ए-कौसर हुआ मेरा ये मुँह जो रदीफ़-ए-लब-ए-ख़ुश-रंग हुआ है क्या फ़ाक़ीह ग़ुन्चा का यहाँ तंग हुआ है अब मदह-ए-दहन का मुझे आहंग हुआ है पर गुंचे का नाम इस के लिए नंग हुआ है ग़ुन्चा कहा उस मुँह को हज़र अहल-ए-सुख़न से सूंघे कोई बू आती है गुंचे के दहन से शीरीं-रक्मों में रक़्म उस लब की जुदा है इक ने शुक्र और एक ने याक़ूत लिखा है याक़ूत का लिखना मगर इन सब से बजा है याक़ूत से बढ़ जो लिखूँ मैं तो मज़ा है चूसा है ये लब मिसल-ए-रत्ब हक़ के वली ने याक़ूत का बोसा लिया किस रोज़ अली ने जान-ए-फ़ुसहा रूह-ए-फ़साहत है तो ये है हर कलिमा है मौक़े पे बलाग़त है तो ये है एजाज़-ए-मसीहा की करामत है तो ये है क़ाएल है नज़ाकत कि नज़ाकत है तो ये है यूँ होंटों पे तस्वीर-ए-सुख़न वक़्त-ए-बयाँ है या वक़्त से गोया रग-ए-याक़ूत अयाँ है अब असल में शीरीं-दहनी की करों तहरीर तिफ़ली में खुला जबकि यही ग़ुंचा-ए-तक़रीर पहले ये ख़बर दी कि मैं हूँ फ़िदया-ए-शपीर इस मुज़दे पे मादर ने उन्हें बख़्श दिया शीर मुँह हैदर-ए-कर्रार ने मीठा किया उन का शीरीनी-ए-एजाज़ से मुँह भर दिया उन का उस लब से दम-ए-ताज़ा हर इक ज़िनदे ने पाया जैसे शहि-ए-मरदाँ ने नसीरी को जलाया जान बख़्शि-ए-अम्वात का गोया है ये आया हम-दम दम-ए-रूह-ए-अक़दस उन का नज़र आया दम क़ालिब-ए-बे-जाँ में जो दम करते थे ईसा इन होंटों के एजाज़ का दम भरते थे ईसा दाँतों की लड़ी से ये लड़ी अक़ल-ए-ख़ुदा-दाद वो बात ठिकाने की कहूँ अब कि रहे याद ये गौहर-ए-अब्बास हैं पाक उन की ये बुनियाद अब्बास-ओ-नजफ़ एक हैं गिनिए अगर एदाद मादिन के शरफ़ हैं ये जवाहर के शरफ़ हैं दंदाँ दर-ए-अब्बास हैं तो दर-ए-नजफ़ हैं अस्ना अशरी अब करें हाथों का नज़ारा दस उंगलियाँ हैं मिस्ल-ए-इल्म इन में सफ़-ए-आरा हर पंजे का है पंजितनी को ये इशारा ऐ मोमिनो अशरा में इल्म रखना हमारा पहले मिरे आक़ा मिरे सालार को रोना फिर ज़ेर-ए-इल्म उन के अलमदार को रोना ता-मू-ए-कमर फ़िक्र का रिश्ता नहीं जाता फ़िक्र एक तरफ़ वहम भी हाशा नहीं जाता पर फ़िक्र-ए-रसा का मिरी दावा नहीं जाता मज़मून ये नाज़ुक है कि बांधा नहीं जाता अब जे़ब-ए-कमर तेग़-ए-शरर-ए-बार जो की है अब्बास ने शोला को गिरह बाल से दी है उश्शाक हूँ अब आलम-ए-बाला की मदद का दरपेश है मज़मून-ए-अलमदार के क़द का ये है क़द-ए-बाला पिस्र-ए-शेर-ए-समद का या साया मुजस्सम हुआ अल्लाहु-अहद का इस क़द पे दो अबरो की कशिश क्या कोई जाने खींचे हैं दो मद एक अलिफ़ पर ये ख़ुदा ने ने चर्ख़ के सौ दौरे न इक रख़्श का कावा देता है सदा उम्र-ए-रवाँ को ये भुलावा ये क़िस्म है तरकीब-ए-अनासिर के अलावा अल्लाह की क़ुदरत है न छल-बल न छलावा चलता है ग़ज़ब चाल क़दम शल है क़ज़ा का तौसन न कहो रंग उड़ा है ये हवा का गर्दिश में हर इक आँख है फ़ानुस-ए-ख़याली बंदिश में हैं नाल उस के रुबाई-ए-हिलाली रौशन है कि जौज़ा ने अनाँ दोष पे डाली भर्ती से है मज़मून रिकाबों का भी ख़ाली सरअत है अंधेरे और उजाले में ग़ज़ब की अंधयारी उसे चाँदनी है चौधवीं शब की गर्दूं हो कभी हम-क़दम उस का ये है दुशवार वो क़ाफ़िले की गर्द है ये क़ाफ़िला-सालार वो ज़ोअफ़ है ये ज़ोर वो मजबूर ये मुख़्तार ये नाम है वो नंग है ये फ़ख़्र है वो आर इक जस्त में रह जाते हैं यूँ अर्ज़ ओ समा दूर जिस तरह मुसाफ़िर से दम-ए-सुब्ह सिरा दूर जो बूँद पसीने की है शोख़ी से भरी है इन क़तरों में परियों से सिवा तेज़ी परी है गुलशन में सुब्ह बाग़ में ये कुबक-दरी है फ़ानूस में परवाना है शीशे में परी है ये है वो हुमा जिस के जिलौ-दार मलक हैं साये की जगह पर के तले हफ़्त फ़लक हैं ठहरे तो फ़लक सब को ज़मीं पर नज़र आए दौड़े तो ज़मीं चर्ख़-ए-बरीं पर नज़र आए शहबाज़ हवा का न कहीं पर नज़र आए राकिब ही फ़क़त दामन-ए-ज़ीं पर नज़र आए इस राकिब ओ मुरक्कब की बराबर जो सना की ये इल्म ख़ुदा का वो मशीय्यत है ख़ुदा की शोख़ी में परी हुस्न में है हूर-ए-बहिश्ती तूफ़ान में राकिब के लिए नूह की कश्ती कब अबलक़-ए-दौराँ में है ये नेक-ए-सरिश्ती ये ख़ैर है वो शर है ये ख़ूबी है वो ज़श्ती सहरा में चमन फ़सल-ए-बहारी है चमन में रहवार है अस्तबल में तलवार है रन में इस रख़्श को अब्बास उड़ाते हुए आए कोस-ए-लिमन-उल-मलक बजाते हुए आए तकबीर से सोतों को जगाते हुए आए इक तेग़-ए-निगह सब पे लगाते हुए आए बे चले के खींचे हुए अबरो की कमाँ को बे हाथ के ताने हुए पलकों की सनाँ को लिखा है मुअर्रिख़ ने कि इक गब्र-ए-दिलावर हफ़तुम से फ़िरोकश था मियान-ए-सफ़-ए-लश्कर रोईं तन ओ संगीं दिल ओ बद-बातिन ओ बदबर सर कर के मुहिम नेज़ों पे लाया था कई सर हमराह शक्की फ़ौज थी डंका था निशाँ था जागीर के लेने को सू-ए-शाम रवाँ था तक़दीर जो रन में शब-ए-हफ़तुम उसे लाई ख़लवत में उसे बात उमर ने ये सुनाई दरपेश है सादात से हम को भी लड़ाई वान पंचतनी चंद हैं याँ सारी ख़ुदाई अकबर का न क़ासिम का न शप्पीर का डर है दो लाख को अल्लाह की शमशीर का डर है बोला वो लरज़ कर कि हुआ मुझ को भी विस्वास शमशीर-ए-ख़ुदा कौन उमर बोला कि अब्बास उस ने कहा फिर फ़तह की क्यूँ कर है तुझे आस बोला कि कई रोज़ से इस शेर को है प्यास हम भी हैं बहादुर नहीं डरते हैं किसी से पर रूह निकलती है तो अबास-अली से तशरीफ़ अलमदार-जरी रन में जो लाया इस गबर को चुपके से उमर ने ये सुनाया अंदेशा था जिस शेर के आने का वो आया सर उस ने परे से सो-ए-अब्बास उठाया देखा तो कहा काँप के ये फ़ौज-ए-वग़ा से रूबा हो लड़ाते हो मुझे शेर-ए-ख़ुदा से माना कि ख़ुदा ये नहीं क़ुदरत है ख़ुदा की मुझ में है निरा ज़ोर ये क़ूत है ख़ुदा की की ख़ूब ज़ियाफ़त मिरी रहमत है ख़ुदा की सब ने कहा तुझ पर भी इनायत है ख़ुदा की जा उज़्र न कर नाम है मर्दों का इसी से तो दबदबा-ए-ओ-ज़ोर में क्या कम है किसी से बादल की तरह से वो गरजता हुआ निकला जल्दी में सुलह जंग के बजता हुआ निकला हरगाम रह-ए-उम्र को तजता हुआ निकला और सामने नक़्क़ारा भी बजता हुआ निकला ग़ालिब तहमतन की तरह अहल-ए-जहाँ पर धॅंसती थी ज़मीं पाँव वो रखता था जहाँ पर तैय्यार कमर कस के हुआ जंग पे ख़ूँख़ार और पैक अजल आया कि है क़ब्र भी तैय्यार ख़ंजर लिया मुँह देखने को और कभी तलवार मिसल-ए-वर्म-ए-मर्ग चढ़ा घोड़े पे इक बार वो रख़्श पे या देव-दनी तख़्त-ए-ज़री पर ग़ुल रन में उठा कोई चढ़ा कबक-ए-दरी पर इस हैयत ओ हैबत से वो नख़्वत-ए-सैर आया आसेब को भी साए से उस के हज़्र आया मैदान-ए-क़यामत को भी महशर नज़र आया गर्द अपने लिए नेज़ों पे किश्तों के सर आया ज़िंदा ही पि-ए-सैर न हर सफ़ से बढ़े थे सर मर्दों के नेज़ों पे तमाशे को चढ़े थे सीधा कभी नेज़े को हिलाया कभी आड़ा पढ़ पढ़ के रज्ज़ बाग़-ए-फ़साहत को उजाड़ा ज़ालिम ने कई पुश्त के मर्दों को उखाड़ा बोला मेर हैबत ने जिगर-शेरों का फाड़ा हम पंचा न रुस्तम है न सोहराब है मेरा मर्हब बिन-अब्दुलक़मर अलक़ाब है मेरा फ़ित्राक में सर बांधता हूँ पील-ए-दमाँ का पंजा मैं सदा फेरता हूँ शेर-ए-ज़ियाँ का नज़ारा ज़रा कीजिए हर शाख़-ए-सनाँ का इस नेज़े पे वो सर है फ़ुलाँ-इब्न-ए-फ़ुलाँ का जो जो थे यलान-ए-कुहन इस दौरा-ए-नौ में तन उन के तह-ए-ख़ाक हैं सर मेरे जिलौ में याँ सैफ-ए-ज़बाँ सैफ-ए-इलाही ने इल्म की फ़रमाया मिरे आगे है तक़रीर सितम की अब मुँह से कहा कुछ तो ज़बाँ मैं ने क़लम की कौनैन ने गर्दन मिरे दरवाज़े पे ख़म की ताक़त है हमारी असदुल्लाह की ताक़त पंजे में हमारे है यद-अल्लाह की ताक़त अब्दुलक़मर-ए-नहस का तू दाग़-ए-जिगर है मैं चाँद अली का हूँ अरे ये भी ख़बर है ख़ुर्शीद-परस्ती से तिरी क्या मुझे डर है क़ब्ज़े में तनाब-ए-फ़लक-ओ-शम्श-ओ-क़मर है मक़दूर रहा शम्स की रजअत का पिदर को दो टुकड़े चचा ने किया उंगली से क़मर को ख़ुर्शीद-ए-दरख़्शाँ में बता नूर है किस का कलिमा वर्क़-ए-माह पे मस्तूर है किस का और सूरा-ए-वालशम्स में मज़कूर है किस का ज़र्रे को करे महर ये मक़दूर है किस का ये साहिब-ए-मक़दूर नबी और अली हैं या हम कि ग़ुलाम-ए-ख़ल्फ़-उस-सिदक़ नबी हैं तौबा तो ख़ुदा जानता है शम्श-ओ-क़मर को वो शाम को होता है ग़ुरूब और ये सहर को ईमान समझ महर-ए-शहि-जिन्न-ओ-बशर को शम्मा-ए-रह-ए-मेराज हैं ये अहल-ए-नज़र को ख़ुर्शीद-ए-बनी-फ़ातिमा तो शाह-ए-अमम हैं और माह-ए-बनी-हाश्मी आफ़ाक़ में हम हैं दो चांद को करती है इक अंगुश्त हमारी है महर-ए-नुबुव्वत से मिली पुश्त हमारी है तेग़-ए-ज़फ़र वक़्त-ए-ज़द-ओ-किश्त हमारी सौ ग़र्ज़-ए-क़ज़ा ज़रबत-ए-यकमुश्त हमारी क़ुदरत के नीस्तान के हम शेर हैं ज़ालिम हम शेर हैं और साहिब-ए-शमशीर हैं ज़ालिम सब को है फ़ना दूर हमेशा है हमार सर पेश-ए-ख़ुदा रखना ये पेशा है हमारा हैं शेर-ए-ख़ुदा जिस में वो बेशा है हमारा आरी है अजल जिस से वो तेशा है हमारा हम जुज़्व-ए-बदन इस के हैं जो कल का शरफ़ है रिश्ते में हमारे गुहर-ए-पाक-ए-नजफ़ है जौशन जो दुआओं में है वो अपनी ज़र्रा है हर अक़्दे का नाख़ुन मिरे नेज़े की गिरह है तलवार से पानी जिगर-ए-हर-कि-ओ-मह है काटा पर-ए-जिब्रील को जिस तेग़ से ये है सर ख़ुद-ओ-कुल्ला का नहीं मोहताज हमारा शप्पीर का है नक़श-ए-क़दम ताज हमारा अहमद है चचा मेरा पिदर हैदर-ए-सफ़दर वो कल का पयंबर है ये कौनैन का रहबर और मादर ज़ैनब की है लौंडी मिरी मादर भाई मिरा इक ऊन दो अब्दुल्लाह ओ जाफ़र और शपर ओ शप्पीर हैं सरदार हमारे हम उन के ग़ुलाम और वो मुख़्तार हमारे क़ासिम का अज़ादार हूँ अकबर का मैं ग़म-ख़्वार लश्कर का अलमदार हूँ सुरूर का जिलौ-दार मैं करता हूँ पर्दा तो हिर्म होते हैं उस्वार था शब को निगह बान ख़य्याम-ए-शह-ए-अबरार अब ताज़ा ये बख़्शिश है ख़ुदा-ए-अज़ली की सुक़्क़ा भी बना उस का जो पोती है अली की हम बांटते हैं रोज़ी-ए-हर-बंदा-ए-ग़फ़्फ़ार रज़्ज़ाक़ की सरकार के हैं मालिक-ओ-मुख़्तार पर हक़ की इताअत है जो हर कार में दरकार ख़ुद वक़्त-ए-सहर रोज़े में खालते हैं तलवार हैं उक़्दा-कुशा वक़्त-ए-कुशा क़िला-कुशा भी पर सब्र से बंधवाते हैं रस्सी में गला भी उस के क़दम पाक का फ़िदया है सर अपना क़ुर्बान किया जिस पे नबी ने पिसर अपना नज़र-ए-सर-ए-अकबर है दिल अपना जिगर अपना बैत-उश-शरफ़-ए-शाह पे सदक़े है घर अपना मशहूर जो अब्बास ज़माने का शर्फ़ है शप्पीर की नालैन उठाने का शर्फ़ है शाहों का चिराग़ आते ही गुल कर दिया हम ने हर जा अमल-ए-ख़त्म-ए-रसुल कर दिया हम ने ख़ंदक़ पे दर-ए-क़िला को पुल कर दिया हम ने इक जुज़ु था कलिमा उसे कुल कर दिया हम ने धोका का न हो ये सब शर्फ़-ए-शेर-ए-ख़ुदा हैं फिर वो न जुदा हम से न हम उन से जुदा हैं नारी को बहिश्ती के रज्ज़ पर हसद आया यूँ चल के पि-ए-हमला वो मलऊन-ए-बद आया गोया कि सुक़र से उम्र-ए-अबदूद आया और लरज़े में मरहब भी मियान-ए-लहद आया नफ़रीं की ख़ुदा ने उसे तहसीं की उम्र ने मुजरा किया अब्बास को याँ फ़तह-ओ-ज़फ़र ने शप्पीर को बढ़ बढ़ के नक़ीबों ने पुकारा लौ टूटता है दस्त-ए-ज़बरदस्त तुम्हारा है मरहब-ए-अब्दुलक़मर अब मअर्का-आरा शप्पीर यकीं जानो कि अब्बास को मारा ये गर्ग वो यूसुफ़ ये ख़िज़ाँ है वो चमन है वो चाँद ये अक़रब है वो सूरज ये गहन है इस शोर ने तड़पा दिया हज़रत के जिगर को अकबर से कहा जाओ तो अम्मो की ख़बर को अकबर बढ़े है और मुड़के पुकारे ये पिदर को घेरा है कई नहस सितारों ने क़मर को इक फ़ौज नई गर्द-ए-अलमदार है रन में लौ माह-ए-बनी-हाश्मी आता है गहन में इक गबर-ए-क़वी आया है खींचे हुए तलवार कहता है कि इक हमला में है फैसला-ए-कार सरकुश्तों के नेज़ों पे हैं गर्द इस के नमूदार याँ दस्त-ए-बह-ए-क़ब्ज़ा मुतबस्सिम हैं अलमदार अल्लाह करे ख़ैर कि है क़सद-ए-शर उस को सब कहते हैं मरहब-ए-बिन-अब्दुलक़मर उस को ग़ुल है कि दिल-आल-ए-अबा तोड़ेगा मरहब अब बाज़ू-ए-शाह-ए-शोहदा तोड़ेगा मरहब बंद-ए-कमर-ए-शेर ख़ुदा तोड़ेगा मरहब गौहर को तह-ए-संग जफ़ा तोड़ेगा मरहब मरहब का न कुछ उस की तवानाई का डर है फ़िदवी को चचा-जान की तन्हाई का डर है शह ने कहा क्या रूह-ए-अली आई न होगी नाना ने मिरे क्या ये ख़बर पाई न होगी क्या फ़ातिमा फ़िर्दोस में घबराई न होगी सर नंगे वो तशरीफ़ यहाँ लाई न होगी बंदों पे अयाँ ज़ोर-ए-ख़ुदा करते हैं अब्बास प्यारे मिरे देखो तो कि क्या करते हैं अब्बास सुन कर ये ख़बर बीबियाँ करने लगीं नाला डेयुढ़ी पे कमर पकड़े गए सय्यद-वाला चिल्लाए कि फ़िज़्ज़ा अली-असग़र को उठा ला है वक़्त-ए-दुआ छूटता है गोद का पाला सैय्यदानियो! सर खोल दो सज्जादा बिछा दो दुश्मन पे अलमदार हो ग़ालिब ये दुआ दो खे़मे में क़यामत हुई फ़र्याद-ए-बका से सहमी हुई कहती थी सकीना ये ख़ुदा से ग़ारत हुआ इलाही जो लड़े मेरे चचा से वो जीते फिरें ख़ैर मैं मरजाऊँ बला से सदक़े करूँ क़ुर्बान करूँ अहल-ए-जफ़ा को दो लाख ने घेरा है मिरे एक चचा को है है कहीं इस ज़ुलम-ओ-सितम का है ठिकाना सुक़्क़े पे सुना है कहीं तलवार उठाना कोई भी रवा रखता है सय्यद का सताना जाएज़ है किसी प्यासे से पानी का छुपाना हफ़तुम से ग़िज़ा खाई है ने पानी पिया है बे रहमों ने किस दुख में हमें डलदाया है अच्छी मिरी अम्माँ मरे सुक़्क़े को बुलाओ कह दो कि सकीना हुई आख़िर इधर आओ अब पानी नहीं चाहिए ताबूत मंगाओ कांधे से रखो मुश्क जनाज़े को उठाओ मिलने मिरी तुर्बत के गले आएंगे अब्बास ये सुनते ही घबरा के चले आएंगे अब्बास इस अर्सा में हमले किए मरहब ने वहाँ चार पर एक भी इस पंचतनी पर ना चला वार मानिंद-ए-दिल-ओ-चश्म हर इक अज़्व था होशियार आरी हुई तलवार मुख़ालिफ़ हुआ नाचार जब तेग़ को झुंजला के रुख़-ए-पाक पे खींचा तलवार ने उंगली से अलिफ़ ख़ाक पे खींचा ग़ाज़ी ने कहा बस इसी फ़न पर था तुझे नाज़ सीखा न यदा लिल्लाहियों से ज़रब का अंदाज़ फिर खींची इस अंदाज़ से तेग़-ए-शरर-ए-अंदाज़ जो मियान के भी मुँह से ज़रा निकली न आवाज़ याँ ख़ौफ़ से क़ालिब को किया मियान ने ख़ाली वाँ क़ालिब-ए-अअदा को क्या जान ने ख़ाली ये तेग़-सरापा जो बरहना नज़र आई फिर जामा-ए-तन में न कोई रूह समाई हस्ती ने कहा तौबा क़ज़ा बोली दहाई इंसाफ़ पुकारा कि है क़ब्ज़ा में ख़ुदाई लौ फ़तह-ए-मुजस्सम का वो सर जेब से निकला नुसरत के फ़लक का मह-ए-नौ ग़ैब से निकला बिजली गिरी बिजली पे अजल डर के अजल पर इक ज़लज़ला तारी हुआ गर्दूं के महल पर सय्यारे हटे कर के नज़र तेग़ के फल पर ख़ुर्शीद था मर्रीख़ ये मर्रीख़ ज़ुहल पर ये होल दिया तेग़-ए-दरख़शाँ की चमक ने जो तारों के दाँतों से ज़मीं पकड़ी फ़लक ने मरहब से मुख़ातब हुए अब्बास-ए-दिलावर शमशीर के मानिंद सरापा हूँ मैं जौहर मुम्किन है कि इक ज़र्ब में दो हो तो सरासर पर इस में अयाँ होंगे ना जौहर मिरे तुझ पर ले रोक मिरे वार तिरे पास सिपर है ज़ख़्मी न करूँगा अभी इज़हार-ए-हुनर है कांधे से सिपर ले के मुक़ाबल हुआ दुश्मन बतलाने लगे तेग़ से ये ज़र्ब का हरफ़न ये सीना ये बाज़ू ये कमर और ये गर्दन ये ख़ुद ये चार आईना ये ढाल ये जौशन किस वार को वो रोकता तलवार कहाँ थी आँखों में तो फुर्ती थी निगाहों से निहाँ थी मर्हब ने न फिर ढाल न तलवार सँभाली उस हाथ से सर एक से दस्तार सँभाली ज़ालिम ने सनाँ ग़ुस्से से इक बार सँभाली उस शेर ने शमशीर-ए-शरर-ए-हार सँभाली तानी जो सनाँ उस ने अलमदार के ऊपर ये नेज़ा उड़ा ले गए तलवार के ऊपर जो चाल चला वो हुआ गुमराह ओ परेशाँ फिर ज़ाइचा खींचा जो कमाँ का सर-ए-मैदाँ तीरों की लड़ाई पे पड़ा करअ-ए-पैकाँ तीरों को क़लम करने लगी तेग़-ए-दरख़शाँ जौहर से न तीरों ही के फल दाग़ बदल थे गर शिस्त के थे साठ तो चिल्ला के चहल थे उस तेग़ ने सरकश के जो तरकश में किया घर ग़ुल था कि नीसताँ में गिरी बर्क़ चमक कर पर तीरों के कट कट के उड़े मिसल-ए-कबूतर मर्हब हुआ मुज़्तर सिफ़त-ए-ताइर-ए-बे-पर बढ़ कर कहा ग़ाज़ी ने बता किस की ज़फ़र है अब मर्ग है और तू है ये तेग़ और ये सर है नामर्द ने पोशीदा किया रुख़ को सिपर से और खींच लिया ख़ंजर-ए-हिन्दी को कमर से ख़ंजर तो इधर से चला और तेग़ उधर से उस वक़्त हवा चल न सकी बीच में डर से अल्लाह-रे शमशीर-ए-अलमदार के जौहर जौहर किए उस ख़ंजर-ए-ख़ूँख़ार के जौहर ख़ंजर का जो काटा तो वो ठहरी न सिपर पर ठहरी न सिपर पर तो वो सीधी गई सर पर सीधी गई सर पर तो वो थी सद्र ओ कमर पर थी सद्र ओ कमर पर तो वो थी क़ल्ब ओ जिगर पर थी क़लब ओ जिगर पर तो वो थी दामन-ए-ज़ीं पर थी दामन-ए-ज़ीं पर तो वो राकिब था ज़मीं पर ईमाँ ने उछल कर कहा वो कुफ्र को मारा क़ुदरत ने पुकारा कि ये है ज़ोर हमारा हैदर से नबी बोले ये है फ़ख़्र तुम्हारा हैदर ने कहा ये मिरी पुतली का है तारा परवाना-ए-शम-ए-रुख़-ए-ताबाँ हुईं ज़ोहरा मोहसिन को लिए गोद में क़ुरबाँ हुईं ज़ोहरा हंगामा हुआ गर्म ये नारी जो हुआ सर्द वां फ़ौज ने ली बाग बढ़ा याँ ये जवाँमर्द टापों की सदा से सर-क़ारों में हुआ दर्द रंग-ए-रुख़-ए-आदा की तरह उड़ने लगी गर्द क़ारों का ज़र-ए-गंज-ए-निहानी निकल आया ये ख़ाक उड़ी रन से कि पानी निकल आया जो ज़िंदा थे अलअज़मतुल्लाह पुकारे सर मर्दों के नेज़ों पे जो थे वाह पुकारे डरकर उम्र-ए-सअद को गुमराह पुकारे ख़ुश हो के अलमदार सू-ए-शाह पुकारे याँ तो हुआ या हज़रत-ए-शप्पीर नारा शप्पीर ने हंस कर किया तकबीर का नारा पर्दे के क़रीब आ के बहन शह की पुकारी दुश्मन पर हुई फ़तह मुबारक हो मै वारी अब कहती हूँ मै देखती थी जंग ये सारी अब्बास की इक ज़र्ब में ठंडा हुआ नारी मर्हब को तो ख़ैबर में यदुल्लाह ने मारा हम नाम को इब्न-ए-असदुल्लाह ने मारा मैदाँ मे अलमदार के जाने के मै सदक़े उस फ़ाक़े में तलवार लगाने के मैं सदक़े बाहम इल्म ओ मुश्क उठाने के मै सदक़े उस प्यास मे इक बूँद न पाने के मै सदक़े सुक़्क़ा बना प्यासों का मुरव्वत के तसद्दुक़ बे सर किया शह-ज़ोरों को क़ूत के तसद्दुक़ तुम दोनों का हर वक़्त निगहबान ख़ुदा हो देखे जो बुरी आँख से ग़ारत हो फ़ना हो दोनों की बला ले के ये माँ-जाई फ़िदा हो रो कर कहा हज़रत ने बहन देखिए क्या हो मुंह चाँद सा मुझ को जो दिखाएँ तो मैं जानूँ दरिया से सलामत जो फिर आएँ तो मैं जानूँ ज़ैनब से ब-हसरत ये बयाँ करते थे मौला नागाह सकीना ने सुना फ़तह का मिज़दाँ चिल्लाई मैं सदक़े तिरे अच्छी मिरी फ़िज़्ज़ा जा जल्द बलाएँ तू मेरे अमूद की तू ले आ देख प्यास का कह कर उन्हें मदहोश न करना पर याद दिलाना कि फ़रामोश न करना लेने को बलाएँ गई फ़िज़्ज़ा सू-ए-जंगाह अब्बास ने आते हुए देखा उसे नागाह चिल्लाए कि फिर जा मैं हवा आने से आगाह कह देना सकीना से हमें याद है वल्लाह दि प्यास से बी-बी का हुआ जाता है पानी ले कर तिरे बाबा का ग़ुलाम आता है पानी दरिया को चले अब्र-ए-सिफ़त साथ लिए बर्क़ मर्हब के शरीकों का जुदा करते हुए फ़र्क़ सरदार में और फ़ौज में बाक़ी न रहा फ़र्क़ मर्हब की तरह सब छह हब हब में हुए ग़र्क़ तलवार की इक मौज ने तूफ़ान उठाया तूफ़ान ने सर पर वो बयान उठाया पानी हुई हर मौज-ए-ज़र्रह-फ़ौज के तन में मलबूस में ज़िंदे थे कि मुर्दे थे कफ़न में खंजर की ज़बानों को क़लम कर के दहन में इक तेग़ से तलवारों को आरी कया रन में हैदर का असद क़लज़ुम-ए-लश्कर में दर आया उमड़े हुए बादल की तरह नहर आया दरिया के निगहबान बढ़े होने को चौ-रंग पहने हुए मछली की तरह बर में ज़र्रह तंग खींचे हुए मौजों की तरह खंजर बे-रंग सुक़्क़े ने कहा पानी पे जाएज़ है कहाँ जंग दरिया के निगहबान हो पर ग़फ़लत-ए-दीँ है मानिंद-ए-हुबाब आँख में बीनाई नहीं है मज़हब है क्या कि रह-ए-शरा न जानी मशरब है ये कैसा कि पिलाते नहीं पानी बे शीर का बचपन अली-अकबर की जवानी बरबाद किए देती है अब तिशना-दहानी लब ख़ुश्क हैं बच्चों की ज़बाँ प्यास से शक़ है दरिया ही से पूछ लो किस प्यासे का हक़ है पानी मुझे इक मुश्क है उस नहर से दर कार भर लेने दो मुझ को न करो हुज्जत-ओ-तकरार चिल्लाए सितम-गर है गुज़र नहर पे दुशवार ग़ाज़ी ने कहा हाँ पे इरादा है तो होशियार लौसेल को और बर्क़-ए-शरर-बार को रोको रहवार कोरोको मिरी तलवार को रोको ये कह के किया अस्प-ए-सुबुक-ए-ताज़ को महमेज़ बिजली की तरह कूंद के चमका फ़र्स-ए-तेज़ अशरार के सर पर हुआ नअलों से शरर-ए-रेज़ सैलाब-ए-फ़ना था कि वो तूफ़ान-ए-बला-ख़ेज़ झपकी पलक उस रख़्श को जब क़हर में देखा फिर आँख खुली जब तो रवाँ नहर में देखा दरिया में हुआ ग़ुल कि वो दर-ए-नजफ़ आया इलियास ओ ख़िज़्र बोले हमारा शरफ़ आया अब्बास शहनशाह-ए-नजफ़ का ख़लफ आया पा-बोस को मोती लिए दस्त-ए-सदफ़ आया याद आ गई प्यासों की जो हैदर के ख़लफ़ को दिल ख़ून हुआ देख कर दरिया के ख़लफ़ को सूखे हुए मुशकीज़ा का फिर खोला दहाना भरने लगा ख़म हो के वो सर ताज-ए-ज़माना अअदा ने किया दूर से तीरों का निशाना और चूम लिया रूह-ए-यदुल्लाह ने शाना फ़रमाया की क्या क्या मुझे ख़ुश करते हो बेटा पानी मिरी पोती के लिए भरते हो बेटा कुछ तिरी कोशिश ओ हिम्मत में नहीं है पानी मगर उस प्यासी की क़िस्मत में नहीं है वक़्फ़ा मिरे प्यारे की शहादत में नहीं है जो ज़ख़्म में लज़्ज़त है वो जराहत में नहीं है इक ख़ून की नहर आँखों से ज़ोहरा के बही है रोने को तिरी लाश पे सर खोल रही है दरिया से जो निकला असदुल्लाह का जानी था शोर कि वो शेर लिए जाता है पानी फिर राह में हाएल हुए सब ज़ुल्म के पानी सुक़्क़ा-ए-सकीना की ये की मर्तबा-दानी क़ब्रें नबी ओ हैदर ओ ज़ुबेरा की हिला दीं बरछों की जो नोंकें थीं कलेजे से मिला दीं वो कौन सा तीर जो दिल पे न लगाया मुशकीज़े के पानी से सवा खून बहाया ये नर्ग़ा था जो शमर ने हीले से सुनाया अब्बास बचो ग़ौल-ए-कमीं-गाह से आया मुड़ कर जो नज़र की ख़लफ़-ए-शीर-ए-ख़दा ने शानो को तहे तेग़ किया अहल-ए-जफ़ा ने लिखा है कि एक नख़्ल-ए-रत्ब था सर-ए-मैदाँ इब्न-ए-वर्क़ा ज़ैद-ए-लईं इस में था पिनहाँ पहुंचा जो वहाँ सर्व-ए-रवान-ए-शह-ए-मुर्दां जो शाना था मुश्क ओ अलम ओ तेग़ के शायाँ वारिस पे किया ज़ैद ने शमशीर-ए-अजल से ये फूली-फली शाख़ कटी ते