बर्क़-ए-तूर

By sajida-zaidiNovember 15, 2020
मैं अपने अरसा-ए-हस्ती की ढूँढती थी असास
तमाम-उम्र बस इक ऐसी रौशनी की तलाश
कि जो निगाह के दामन में
हो सके न असीर


मिरी तबीअ'त-ए-बेचैन की रही तक़दीर
मिरी तलब की विरासत
मिरी जबीं-साई
ये अबदियत का तक़ाज़ा


वो दश्त-पैमाई
तिरे हुज़ूर मगर ये भी कारगर न हुई
कहीं फ़ज़ाओं में
चमकती तो थी वो बर्क़-ए-तपाँ


उस एक लम्हे मुझे जुरअत-ए-नज़र न हुई
24637 viewsnazmHindi