मैं अपने अरसा-ए-हस्ती की ढूँढती थी असास तमाम-उम्र बस इक ऐसी रौशनी की तलाश कि जो निगाह के दामन में हो सके न असीर मिरी तबीअ'त-ए-बेचैन की रही तक़दीर मिरी तलब की विरासत मिरी जबीं-साई ये अबदियत का तक़ाज़ा वो दश्त-पैमाई तिरे हुज़ूर मगर ये भी कारगर न हुई कहीं फ़ज़ाओं में चमकती तो थी वो बर्क़-ए-तपाँ उस एक लम्हे मुझे जुरअत-ए-नज़र न हुई