बसंत की आमद

By mela-ram-wafaNovember 6, 2020
फिर नज़र आती है सब्ज़े की फ़ज़ा में दूर तक
और ख़ुश्बू से महकती हैं हवाएँ दूर तक
जाती हैं क़ुमरी-ओ-बुलबुल की सदाएँ दूर तक
नीचे ऊपर आगे पीछे दाएँ-बाएँ दूर तक


हैं तरन्नुम-रेज़ यकसर शाख़-ओ-बर्ग-ओ-बार आज
बन गया है रेशा रेशा तार-ए-मूसीक़ार आज
गुलशनों में हैं उरूसान-ए-बहार आरास्ता
गुलबुन-ओ-नख़्ल-ओ-निहाल-ओ-शाख़सार आरास्ता


सब्ज़ा-ए-गुल से हैं दश्त-ओ-कोहसार आरास्ता
हो गया सारा जहाँ आईना-दार आरास्ता
हर लब-ए-जू पर हैं यूँ सर्व-ए-ख़िरामाँ सैंकड़ों
गोया शीशे में उतर आई हैं परियाँ सैंकड़ों


दहर से मा'दूम जाड़े के निशाँ होने लगे
हर तरफ़ आसार-ए-सर-गर्मी अयाँ होने लगे
जादा-पैमाई मनाज़िल का रवाँ होने लगे
मुंजमिद दरियाओं के पानी रवाँ होने लगे


पत्थरों में जोश-ए-तासीर-ए-नुमू पैदा हुआ
हर रग-ए-अफ़्सुर्दा में ताज़ा लहू पैदा हुआ
ऐ वफ़ा खुलते हैं तुझ पर आज क्या क्या राज़ देख
चल चमन में बुलबुल-ओ-गुल के नियाज़-ओ-नाज़ देख


जुम्बिश-ए-मौज-ए-नसीम-ए-सुब्ह का ए'जाज़ देख
ताइर-ए-बे-बाल-ओ-पर की हसरत-ए-परवाज़ देख
छोड़ ग़फ़लत और महव-ए-गर्म-जोशी तू भी हो
अरसा-ए-हस्ती में गर्म-ए-ताज़ा-कोशी तू भी हो


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