चाँद चमकने लगता है

By qayyum-nazarNovember 13, 2020
ऊँचे ऊँचे पेड़ खड़े हैं चीलों के
कोहसारों की ढलानों पर जो नीचे
दौड़ी जाती हैं
चाँद से चेहरे वाली नदी के मिलने को


चारों जानिब छाई चुप के पहलू से
दर्द की सूरत उठने वाली तेज़ हवा
गिर्द-ओ-पेश से बे-परवा
अपनी रौ एक ही लय मैं गाती है


उस की ये बेगाना रवी दीवाना ही बनाती है
इक पत्थर पर बैठा पहरों एक ही सम्त में तकता हूँ
नीचे दौड़ी जाती ढलानें
जैसे पलट कर आती हैं


चीलों के पेड़ों के फुंगों से भी ऊँचा जाती हैं
पत्तों के अब पैहम रक़्स की ताल बदलती है
मैं ही शायद
दर्द के साज़ पे अपना राग अलापे जाता हूँ


जाने कब तक...
दूर फ़लक पर चाँद चमकने लगता है
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