ज़माना साथ चला है तो साथ ग़म भी चले हयात-ओ-मौत के रिश्ता में एक और गिरह उफ़ुक़ के पास स्याही की सरहदों से दूर शफ़क़ की गोद में किरनों की साँस टूट गई थके थके से मुसाफ़िर उधार की पूँजी जो काएनात के विर्से की इक ख़यानत है चले हैं ले के किसी शाहराह की जानिब
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