ग़रीबों का ख़ुदा कोई नहीं
By abdul-qayyum-zaki-aurangabadiFebruary 25, 2024
एक दिन थी दोपहर की सख़्त गर्मी आश्कार
धूप की शिद्दत थी मिस्ल-ए-नार-ए-दोज़ख़ क़हर-बार
दामनों में आग ले कर थी दवाँ बाद-ए-सुमूम
थरथराहट थी फ़ज़ा में मिस्ल-ए-मौज-ए-शो'ला-बार
आसमाँ से शो'ले गिरते थे झुलसती थी ज़मीं
गर्मी-ए-रोज़-ए-क़यामत का नमूना आश्कार
गर्म झोंके चल रहे थे थीं हवा की यूरिशें
तुंद शो'ले सुर्ख़ ज़र्रे उड़ रहे थे बार-बार
हर किसी की था ज़बाँ पर अल-हफ़ीज़-ओ-अल-ग़ियास
चिलचिलाती धूप से था ज़र्रा ज़र्रा बे-क़रार
रास्ते सूने पड़े थे राह पर कोई न था
चल रही थी हर तरफ़ लू और बशर कोई न था
हाँ मगर था रिक्शा वाला एक सरगर्म-ए-सफ़र
जिस को ग़ुर्बत कर रही थी मौत से सीना-सिपर
जो निगाह-ए-अहल-ए-सर्वत में हक़ीर-ओ-पाएमाल
ज़िंदगानी वक़्फ़ थी जिस की बराए अहल-ए-ज़र
जिस की दुनिया फ़क्र-ओ-फ़ाक़ा जिस की क़िस्मत रंज-ओ-ग़म
जब्र-ए-क़ुदरत ही ने जिस को कर दिया बे-बाल-ओ-पर
ख़ून बन बन कर पसीना हर बुन-ए-मू से रवाँ
चार पैसे के लिए जो बन गया था जानवर
बे-नियाज़-ए-'ऐश-ओ-'इशरत आश्ना-ए-दर्द-ओ-ग़म
एक मुश्त-ए-उस्तुख़्वाँ आशुफ़्ता-रौ बा-चश्म-ए-तर
उस घड़ी भी मुज़्तरिब था रिज़्क़-कोशी के लिए
आग में वो जल रहा था अपनी रोटी के लिए
क्या बताऊँ क्या मिरी आँखों ने देखा फिर समाँ
उड़ रही हैं क़ल्ब-ए-सोज़ाँ से मिरे चिंगारियाँ
दफ़'अतन ठोकर लगी और चलते चलते गिर पड़ा
मुर्ग़-ए-बिस्मिल दम के दम में बन गया वो नीम-जाँ
देखता हूँ जा के मैं तो ख़ाक का इक ढेर था
मुँह से बाहर थी ज़बाँ और ख़ून होंटों से रवाँ
मरने वाले की किसी हसरत में थीं आँखें खुली
उठ रहा था पैकर-ए-बे-जाँ से रह रह कर धुआँ
चारासाज़-ओ-दस्तगीर-ए-बे-कसाँ कोई न था
कौन होता बे नवाओं का भला मातम-कुनाँ
मुफ़लिसों का दहर में मुश्किल-कुशा कोई नहीं
ऐ 'ज़की' सच है ग़रीबों का ख़ुदा कोई नहीं
धूप की शिद्दत थी मिस्ल-ए-नार-ए-दोज़ख़ क़हर-बार
दामनों में आग ले कर थी दवाँ बाद-ए-सुमूम
थरथराहट थी फ़ज़ा में मिस्ल-ए-मौज-ए-शो'ला-बार
आसमाँ से शो'ले गिरते थे झुलसती थी ज़मीं
गर्मी-ए-रोज़-ए-क़यामत का नमूना आश्कार
गर्म झोंके चल रहे थे थीं हवा की यूरिशें
तुंद शो'ले सुर्ख़ ज़र्रे उड़ रहे थे बार-बार
हर किसी की था ज़बाँ पर अल-हफ़ीज़-ओ-अल-ग़ियास
चिलचिलाती धूप से था ज़र्रा ज़र्रा बे-क़रार
रास्ते सूने पड़े थे राह पर कोई न था
चल रही थी हर तरफ़ लू और बशर कोई न था
हाँ मगर था रिक्शा वाला एक सरगर्म-ए-सफ़र
जिस को ग़ुर्बत कर रही थी मौत से सीना-सिपर
जो निगाह-ए-अहल-ए-सर्वत में हक़ीर-ओ-पाएमाल
ज़िंदगानी वक़्फ़ थी जिस की बराए अहल-ए-ज़र
जिस की दुनिया फ़क्र-ओ-फ़ाक़ा जिस की क़िस्मत रंज-ओ-ग़म
जब्र-ए-क़ुदरत ही ने जिस को कर दिया बे-बाल-ओ-पर
ख़ून बन बन कर पसीना हर बुन-ए-मू से रवाँ
चार पैसे के लिए जो बन गया था जानवर
बे-नियाज़-ए-'ऐश-ओ-'इशरत आश्ना-ए-दर्द-ओ-ग़म
एक मुश्त-ए-उस्तुख़्वाँ आशुफ़्ता-रौ बा-चश्म-ए-तर
उस घड़ी भी मुज़्तरिब था रिज़्क़-कोशी के लिए
आग में वो जल रहा था अपनी रोटी के लिए
क्या बताऊँ क्या मिरी आँखों ने देखा फिर समाँ
उड़ रही हैं क़ल्ब-ए-सोज़ाँ से मिरे चिंगारियाँ
दफ़'अतन ठोकर लगी और चलते चलते गिर पड़ा
मुर्ग़-ए-बिस्मिल दम के दम में बन गया वो नीम-जाँ
देखता हूँ जा के मैं तो ख़ाक का इक ढेर था
मुँह से बाहर थी ज़बाँ और ख़ून होंटों से रवाँ
मरने वाले की किसी हसरत में थीं आँखें खुली
उठ रहा था पैकर-ए-बे-जाँ से रह रह कर धुआँ
चारासाज़-ओ-दस्तगीर-ए-बे-कसाँ कोई न था
कौन होता बे नवाओं का भला मातम-कुनाँ
मुफ़लिसों का दहर में मुश्किल-कुशा कोई नहीं
ऐ 'ज़की' सच है ग़रीबों का ख़ुदा कोई नहीं
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