कभी कभी मुझ को जान पड़ता है जैसे मुझ में घिरा हुआ पर्बतों से ख़ाली सा इक महल हो जहाँ कभी बुध के इल्म का इक ख़ज़ाना था जिस जगह श्लोक और मंतर माहौल में नहीं ख़ुद मिरे ही अंदर मिरी सदा में हिमालियाई हवाओं की तरह गूँजते थे अजीब अज़्मत के साथ मैं यूँ अलग-थलक था कि जिस तरह मेरी मौत की बात क़रनहा क़र्न से है वो राज़ मैं ही बस जिस को जानता हूँ मैं अपने अंदर वो आत्मा हूँ जिसे कभी इक अज़ीम पेशेन-गोई का सैल-ए-बे-समाअ'त महल समेत आसमान में ले उड़ा था या फिर मैं इक तनाव हूँ आसमानों की सम्त बचपन के हैरत-अंगेज़ ख़्वाब के बे बने महल सा जहाँ मिरे चारों सम्त राहें सफ़ेद रेत और बर्फ़ की अपनी अपनी हद से मिरी तरफ़ बढ़ रही हैं जैसे मैं देवताओं का हूँ वो मस्कन जो सब को अपनी तरफ़ बुलाता है और सब की पहुँच से कुछ इस तरह परे है कि जैसे मैं देखने की हद हूँ मैं एक पर्बत हूँ वादियाँ जिस ने बाँट दी हैं मैं इक गुफा हूँ जो वादियों को मिला रही है मैं जैसे सदियों की यात्रा की वो गहरी आवाज़ हूँ जो अब तक गुफा के अंदर से आ रही है मैं एक भिकशू हूँ जो कभी का इसी गुफा में समा चुका है जो ख़ुद में तश्कील हो रहा था जो ख़ुद में तश्कील हो रहा है