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By gulzarOctober 30, 2020
टुकड़ा इक नज़्म का
दिन भर मेरी साँसों में सरकता ही रहा
लब पे आया तो ज़बाँ कटने लगी
दाँत से पकड़ा तो लब छिलने लगे
न तो फेंका ही गया मुँह से
न निगला ही गया
काँच का टुकड़ा अटक जाए हलक़ में जैसे
टुकड़ा वो नज़्म का साँसों में सरकता ही रहा
दिन भर मेरी साँसों में सरकता ही रहा
लब पे आया तो ज़बाँ कटने लगी
दाँत से पकड़ा तो लब छिलने लगे
न तो फेंका ही गया मुँह से
न निगला ही गया
काँच का टुकड़ा अटक जाए हलक़ में जैसे
टुकड़ा वो नज़्म का साँसों में सरकता ही रहा
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