शिकस्ता घर है दहकते आँगन में सिन-रसीदा शजर के पत्ते बिखर चुके हैं परिंदगाँ जो यहाँ चहकने में महव रहते थे ख़ामुशी की सिलों के नीचे दबे पड़े हैं सिलें जो घर की उधड़ती छत से कलाम करतीं तो रौशनी को क़रार मिलता क़रार जिस ने बुझे चराग़ों की हैरतों को सबात बख़्शा उफ़ुक़ से आगे हमारे हीलों फ़रेब देते हुए बहानों की क़द्र कम थी सो हम बक़ा से फ़ना की जानिब पलट रहे हैं ख़मीर-ए-आदम है इस्तिआ'रा शिकस्तगी का ख़ला से बाहर हमारे होने की कहकशाएँ सरक रही हैं