मादर-ए-हिन्दोस्ताँ

By sudarshan-kumar-vuggalFebruary 6, 2022
चमन के ज़र्रे ज़र्रे से सदा ख़ुशियों की आती है
कि आज़ादी के नग़्मे आज बुलबुल गुनगुनाती है
कली खिल कर बहारों के चमन में गीत गाती है
चमन क्या आज तो सारी ख़ुदाई मुस्कुराती है


बहार आकर चमन में इक नया मुज़्दा सुनाती है
ज़माना रक़्स में है ज़िंदगी ख़ुशियाँ मनाती है
दिया ख़ून-ए-जिगर हम ने तो गुलशन में बहार आई
बहुत मुद्दत के बाद आख़िर ये जान-ए-इंतिज़ार आई


दिलों की बे-क़रारी का यही ले कर क़रार आई
ख़ुशा-क़िस्मत चमन में अंदलीब-ए-नग़्मा-बार आई
ये आज़ादी वतन में इक नई दुनिया बसाती है
चमन में अब जिधर देखो जवानी मुस्कुराती है


मगर इक मख़मसे में मादर-ए-हिन्दोस्ताँ है आज
उसे दरकार अहल-ए-हिन्द का अज़्म-ए-जवाँ है आज
मिटाना दुश्मनों का दह्र से नाम-ओ-निशाँ है आज
कमर बाँधे हुए भारत का हर पीर-ओ-जवाँ है आज


है वो नग़्मा हर इक लब पर कि धरती चौंक जाती है
तिरी ललकार से 'रिफ़अत' ये दुनिया थरथराती है
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